Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 351
________________ ३२८ महाबंचे पदेसबंधाहियारे अंगो० णि० तं० तु ० सादिरेयं दुभाग० संखेजदिभागग्भ० । आहारदुगं मिया० नं०तु० संखेज दिभागन्भहियं ० । तित्थ० सिया० संखेंज्जदिभाग भ० । ५२३. णिरय ० जह० पदे०चं० पंचणा०-णवदंस० - असादा०-मिच्छ० -सोलसक०णंस०-अरदि-सोग-भय-दु० - णिरयाउ०- णिरयाणु०-णीचा० - पंचंत० णि० बं० णि० जहण्णा । पंचिंदि० - वेउच्चि ० - तेजा० क० हुंड० वण्ण०४- अगु०४ - अप्पसत्थ० -तस०४अथिरादिछ० - णिमि० ' णि० संखैजदिभाग भ० | वेउव्वि ० अंगो० णि० संखेज्जगु० । ५२४. तिरिक्ख० जह० पदे०चं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०- सोलसक०भय-दु० - तिरिक्खाउ ० - ओरालि ० २ ओरालि ० अंगो० - वण्ण ०४ - तिरिक्खाणु ० - अगु०४उजो०-तस०४- णिमि० णीचा० - पंचंत० णि० बं० णि० जह० । दोवेद० - सत्तणोक०चदुजादि - छस्संठा०-छस्संघ० दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० जह० । तेजा ० क ० 3 जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उसका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे साधिक दो भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है या संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । ५२३. नरकगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकायु, नरकगत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम से जघन्य प्रदेशबन्ध करना है । पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुच्चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियम से संख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । वरण, ५२४. तिर्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनामिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चायु, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीच गोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय, सात नोकषाय, द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध - १. श्र० प्रती 'अथिरादिछयु ० निमि०' इति श्रोलि०' इति पाठः । ३. आ०प्रतौ 'सिया० तं तु० । पाठः । २. ता०ना० प्रत्योः 'तिरिक्खाउ ० तेजाक०' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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