Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 363
________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ५४६. मणुसाउ० जह० पदे०बं० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-पुरिस०-भयदगुं-मणुसगदि० उवरि याव उच्चा०-पंचंत० णि० वं० णि० अजह० असंखेंजगुणभः । दोवेद०-चदुणोक०-थिरादितिषिणयुग०-तित्थ० सिया० बं० सिया० अबं० । यदि बं० णि० अजह० असंखेंजगुणब्म० । एवं देवाउ० । णवरि देवाउगपाओग्गपगदीओ णादव्वाओ भवंति । आहारदुगं सिया० तंतु० संखेजदिमागम० । तित्थ० सिया० असंखेंजगुणभ०। ५४७. मणुस. जह• पदे०बं० पंचणा०-छदंस० बारसक०-पुरिस०-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि० ज०। दोवेद.'-चदुणोक० सिया० जह० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं सव्वणामाणं । णवरि देवगदि० जह० पदे०बं० पंचणा०-छदंस०पारसक०-पुरिस०-भय-दुगुं०-उच्चा-पंचंत० णि. बं० णि. जह० । दोवेद०-चदुणोक० . ५४६. मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँचज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा तथा मनुष्यगतिसे लेकर उच्चगोत्र तक और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर आदि तीन युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर देवायुके जघन्य प्रदेशबन्धके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । यह देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव आहारकद्विकका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ५४७. मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मको प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान नामकर्मकी अन्य प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्च गोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। १. ताप्रतौ 'पुरि०"दोवेद.' आप्रतौ० 'पुरिस० भय दु०"उचा. पंचंत० णि बं० णि ज० दोवेद०' इति पाठः । २. ता प्रतौ 'जह० णामाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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