Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 390
________________ उत्तरपर्गादिपदेस बंधे परिमाणपरूवणा ३६७ सेसाणं जह० अजह ' ० बं० के० ? असंखेजा । वचि० - असच्चमोसवचि ० सव्वपगदीणं आहार०२ - तित्थ० ओघं । जोणिणिभंगो | णवरि वेव्वि०-वेव्वि०मि० देवोभंगो | ५८९, इत्थ- पुरिसेसु पंचिदियभंगो । णवरि इत्थि० तित्थयरं जह० अजह० के० ? संखेजा । विभंगे सव्वपगदीणं जह० अजह० केव० ? असंखेजा । ५९०. आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा० छदंस०-सादासाद०- बारसक०- -सत्तणोक० और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों के समान है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। वैक्रियिककाययोगी और वैकियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवों के समान भङ्ग है । विशेषार्थ – पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में संख्यात जीव ही दो गति आदिका जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं, इसलिए यहाँ इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । पचेन्द्रिय तिर्यख योनिनी जीवों में सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण पहले असंख्यात बतला आये हैं। अपने स्वामित्वको देखते हुए उसी प्रकार यहाँ वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें भी वह घटित हो जाता है, इसलिए इन मार्गणाओंमें पलेद्रिय तिर्यख योनिनी जीवोंके समान प्ररूपणा जाननेकी सूचना की है। मात्र इन दोनों मार्ग ओ में आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भी बन्ध होता है, इसलिए इनके विषय में अलग से सूचना की है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है, यह स्पष्ट ही है । मात्र इनमें मनुष्यगतिद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए सम्यग्दृष्टि देव नारकी करते हैं- इतना जानकर मनुष्यगतिद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण कहना चाहिए | ५८९. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें पचेन्द्रियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने है ? संख्यात है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । विशेषार्थ - स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें पचेन्द्रियोंकी मुख्यता है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियों का भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है। मात्र स्त्रीवेदी जीवों तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध मनुष्यिनी करती हैं और मनुष्यिनी संख्यात होती हैं, इसलिए स्त्री वेदियों में तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं । विभङ्गज्ञानमें सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जो स्वामी बतलाया है, उसे देखते हुए इसमें सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात बन जाता है, यह स्पष्ट ही है । ५९०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, देवायु, उच्चगोत्र १. श्र०प्रतौ 'सेसाणं श्रजह०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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