Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 388
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे परिमाणपरूवणा ३६५ अपज०-सव्वविगलिंदि०-पंचिंदि०-तसअपज'. चदुण्णं कायाणं बादरपत्तेगाणं च । ५८५. मणुसेसु दोआउ०-वेउब्बियछ०-आहार०२-तित्थ० जह० अजह० बं० केव० ? संखेजा । सेसाणं जह• अजह' ० केव० ? असंखेजा। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वपगदीणं जह० अजह० के० ? संखेंजा' । एवं सव्वट्ठ-आहार-आहारमि०अवगदवे०-मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार ०-सुहुमसंप० ।। ५८६. देवेसु णिरयभंगो। एवं भवण-वाण-०-जोदिसि० । सोधम्मीसाणं. [एवं चेव । णवरि ] मणुस०-मणुसाणु".-तित्थ० जह० के० १ संखेजा। अजह. के. ? असंखेंज्जा । एवं याव सहस्सार त्ति । आणद याव णवगेवज्जा त्ति सव्वपगदीणं असंख्यात है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त पृथिवी आदि चारों स्थावरकायिक और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ असंयतसम्यग्दृष्टि जीव योग्य सामग्रीके सद्भावमें देवगतिचतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। परन्तु पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियों में वैक्रियिकषट्कका जघन्य प्रदेशबन्ध योग्य सामग्रीके सद्भावमें असंज्ञो जीव करते हैं, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात बन जानेसे उसका विशेषरूपसे निर्देश किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ५८५. मनुष्योंमें दो आयु, वैक्रियिकषट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने है ? संख्यात है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने है ? संख्यात है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जोवों में जानना चाहिए। विशेषार्थ-दो आयु आदि ग्यारह प्रकृतियोंका मनुष्य अपर्याप्त बन्ध नहीं करते, इसलिए मनुष्यों में उनके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष प्ररूपणा स्पष्ट ही है। ५८६. देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए। तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। मात्र यहाँ मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इस प्रकार सहसार कल्प तक जानना चाहिए । आनतकल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेश १. ता०प्रती 'पंचिंदि० तरस (स). अपज' प्रा०प्रती 'पंचिंदि० तस्सेव अपज० इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ 'सेसाणं बं० अजह.' इति पाठः। ३. ता० प्रा०प्रत्योः 'असंखेजा.' इति पाठः। १. भा०प्रती 'सोधम्मीसाणं० मणुसागु०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 386 387 388 389 390 391 392 393 394