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उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं
३३९ तंतु० संखेंजदिभागब्भ० । एवमेदेण कमेण णेदवाओ सव्वाओ पगदीओ। एवं पुरिस० । हस्स-रदीणं साद०भंगो। अरदि-सोगाणं असाद०भंगो । णामाणं हेट्ठा उवरिं आभिणिभंगो । णामाणं सत्थाणभंगो।
५४५. आभिणि-सुद-ओधिणा० आभिणि० जह० पदे०बं० चदुणा०छदसणा०'-बारसक०-पुरिस०-भय-द ०-उचा०-पंचंत० णि बं० णि. जह० । दोवेद०चदणोक० सिया० जह०। दोगदि-दोसरोर-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु-थिरादितिण्णियुग०-तित्थ० सिया० ० तु. संखेंजदिभागब्भ। पंचिंदि०-तेजा०-क०समचद् ०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णि तंन्तु० संखेजदिभागभः। एवं चदणा०-छदंसणा०-दोवेद०-बारसक०-सत्तणोक०-उच्चा०पंचंत।
भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार इस क्रमसे सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ले आना चाहिए । इसी प्रकार पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए । तथा हास्य और रतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान सन्निकर्ष कहना चाहिए और अरति व शोकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके असोतावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान सन्निकर्ष कहना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले पृथक-पृथक् जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये सन्निकर्षके समान है। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
५४५. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनोराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, स्थिर आदि तीन युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, दो वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, उच्च गोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए।
१. ता०प्रती 'चदुणो छदंस०' इति पाउः ।
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