Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 365
________________ ३४२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे देवग०-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा.-क० - समचदु०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४ - पसत्थातस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै-णिमि०-उच्चा०-पंचंत. णि. बं० णि. अजह० संखेंजभागब्भहि० । हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस०-तित्थ० सिया० संखेजदिभा० । अरदि-सोग० सिया० जह० । वेउव्वि०अंगो० णि. बं. सादिरेयं दुभागब्भ० । अथिर-असुभअजस० सिया० तंन्तु० संखेंजदिभागब्भ० । एवं अरदि-सोगाणं । ५५०. देवगदि० जह० पदे०७० पंचणा०-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगु०-देवाउ०-उच्चा०'-पंचंत० णि. बं. णि० जह० । णामाणं सत्थाणभंगो। ५५१. अथिर० जह० पदे०६० पंचणा-छदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि० बं० णि. अजह० संखेंजभागभ० । सादा०-हस्स-रदि-सुभ-जस० सिया० संखेंजभागब्भ० । असादा०-अरदि-सोग-असुभ-अजस० सिया० जह० । एवं दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजधन्य प्रदेशबन्ध करता है। हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यश-कीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक दो भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान अरति और शोकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए । ५५०. देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवायु, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ५५१. अस्थिर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियबसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, हास्य, रति, शुभ और यश-कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् १. भा०प्रतौ 'भय दुगु उच्चा०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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