Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 380
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे परिमाणपरूवणा ३५७ एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि ओरालि मि०-कम्मइ '०-णस०कोधादि ४-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-किण्ण०-णील०-काउ०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०असण्णि-आहार०-अणाहारग त्ति । णवरि ओरालि मि०-कम्मइ०-अणाहारगेसुदेवगदिपंचग० उक्क. अणु० के० ? संखेंजा। पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे० उक० पदे० बं० के० ? संखेमा। अणु० केव० ? अणंता। सेसाणं च विसेसो जाणिदच्चो सामित्तेण । समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्या दृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो विशेषता है वह स्वामित्वके अनुसार जान लेनी चाहिए । विशेषार्थ-दो आयु और वैक्रियिकषटकका बन्ध असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं। उसमें भी सब नहीं करते । तथा मनुष्यायु के बन्धक पाँचों इन्द्रिय के जीव होते हुये भी असंख्यात ही हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है। आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण जीव करते हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। ओघसे तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि मनुष्य करते हैं, इसलिए इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। इसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात है, यह स्पष्ट ही है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपनी-अपनी योग्य सामग्रीके सद्भावमें संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव करते हैं, इसलिए शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात कहे हैं और इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, यह स्पष्ट ही है। यहाँ इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपने-अपने योग्य स्थानमें उपशमश्रेणिवाले या क्षपकश्रेणिवाले जीव करते हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है । अन्य प्रकृतियोंके समान इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण अनन्त है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई है, उनमें भी अपनीअपनी बन्ध योग्य सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा यह परिमाण बन जाता है, इसलिए उनमें ओधके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगतिपश्चकका ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव ही बन्ध करते हैं जो या तो देव और नरक पर्यायसे च्युत होकर मनुष्यों में आकर उत्पन्न होते हैं या जो मनुष्य पर्यायसे च्युत होकर उत्तम भोगभूमिके तिर्यश्चों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । यतः इन सबका परिमाण संख्यात है, अतः इन मार्गणाओंमें देवगतिपञ्चकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण 1 ता० प्रती 'ओरा मि.) कमः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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