Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 385
________________ ३६२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ५८१. सुक्काए पढमदंडओ चक्खुदंसणिभंगो । दोआउ०-आहार०२ उक्क० अणु० केव० ? संखेंजा । सेसाणं उक्क० अणु० केव० ? असंखेंजा। एवं खइग० । उवसम० पढमदंडओ आभिणिभंगो। णवरि आहार०२-तित्थ. उकअणु० केव० ? संखेंजा । सेसाणं उक्क० अणु० के० ? असंखेजा। ५८२. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओषे० आदे०। ओघे० पंचणा०-णवदंसणा०. दोवेदणी०-मिच्छ' ०-सोलसक०-णवणोक०-तिरिक्खाउ०-सव्वणामपगदीओ दोगोदपंचंत० जह० अज० पदे०बं० केव० ? अणंता।णवरि तिण्ण आउ०-णिरयगदि-णिरयाणु० पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवालोंका परिमाण स्वामित्व बदल जानेसे संख्यात न होकर असंख्यात हो जाता है। अवधिज्ञानी जीवोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मात्र इतनी ही विशेषता है। पीतलेश्या और पद्मलेश्या भी सातवें गुणस्थान तक होती हैं, इसलिए इनमें वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान प्ररूपणा बन जानेसे वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान जाननेकी सूचना की है। ५८१. शुक्ललेश्यामें प्रथम दण्डकका भङ्ग चक्षुदर्शनी जीवोंके समान है। दो आयु और आहारकद्विकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है। विशेषार्थ-चक्षुदर्शनी जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग ओघके समान कहा है। उसी प्रकार शुक्ललेश्यामें भी बन जाता है, अतः यहाँ प्रथम दण्डकका भङ्ग चक्षुदर्शनी जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। यहाँ मनुष्यायु और देवायु इन दो आयुओं तथा आहारकद्विकका बन्ध संख्यात जीव ही करते हैं, इसलिए इनके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा यहाँ शेष प्रकृतियोंके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं,यह स्पष्ट ही है। शुक्ललेश्याके समान क्षायिकसम्यक्त्वमें भी व्यवस्था बन जाती है। उपशमसम्यक्त्व ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए इसमें प्रथम दण्डकका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान बन जानेसे उनके समान कहा है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृति इसका अपवाद है, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं, इसलिए इसकी प्ररूपणा आहारिकद्विकके साथ की है। यहाँ भी शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं,यह स्पष्ट ही है। ५८२. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यञ्चायु, नामकर्मकी सब प्रकृतियाँ, दो गोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? अनन्त होते हैं। इतनी विशेषता है कि तीन आयु, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? १ ताप्रती 'दोग्वेत्त [ वेद० ] मिग्छ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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