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उत्तरपगदिपदेस बंधे सष्णियासं
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भय-दु० - पंचंत० णि० बं० णि० जह० । दोवेद० -सत्तणोक० - आदाव-दोगो० सिया० जह० । तिरिक्ख० - दोजादि - छस्संठा० - ओरालि ० अंगो० छस्संघ० - तिरिक्खाणु० -उओ०दोविहा [० -तस थावर०-थिरादिछयुग ० ' सिया० तं० तु० संखेज दिभागन्भहियं ० । मणुसग ० - मसाणु० सिया० संखेजदिभागन्भहियं० । ओरालि०-तेजा० क० - वण्ण ०४अगु०४- बादर-पात- पत्ते० - णिमि० णि० तंतु० संखजदिभागग्भहियं । एवं अट्ठदंस०मिच्छ० - सोलसक० बुंस० छण्णोक० णीचा० । इत्थि - पुरिसाणं पि तं चेव । गवरि एइंदियसंजुत्ताओ णिय० । दोआउ० ३ देवभंगो । देवाउ० ओघं० ।
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५५६. तिरिक्ख० जह० पदे० बं० पंचणा०-गवदंस०-मिच्छ०- सोलसक०-भयदुर्गु० - णीचा ० - पंचत० णि० बं० णि० जह० । दोवेदणी० सत्तणोक० छस्संठा० छस्संघ ०
वरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय, सात नोकषाय, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तिर्यञ्चगति, दो जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीर भाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार अर्थात् निद्रानिद्राका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान आठ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, छह नोकषाय और नीचगोत्रका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके भी वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि यह एकेन्द्रियसंयुक्त प्रकृतियोंका नियमसे प्रदेशबन्ध करता है । दो भायुओंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग देवोंके समान है । तथा देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग ओघके समान है ।
५५६. तिर्यञ्जगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यास्त्र, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय, सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध
१. ता०आ० प्रत्योः 'थिरादितिष्णियुग ०' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'णीचा०३ इस्थि०' इति पाठः । ३ ता०आ० प्रस्यो: 'संजुत्ताओ जह० । दोभाउ०' इति पाठः ।
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