Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 352
________________ उत्तरपदिपदेसबंधे सण्णियासं ३२९ णि वणि संखेंजदिभागमः । एवं तिरिक्खगदिभंगो हुंड०-असंप०-तिरिक्खाणु०उजो०-अप्पसत्थ०-भग-दुस्सर-अणार्दै । ५२५. मणुसग० जह० पदे०७० पंचणा०-[मणुसाउ०-] पंचिंदि[ओरालि..] ओरालि अंगो०-वजरि०-वण्ण०४-मणुसाणु० -अगु०४-पसत्थ० - तस०४ - सुभग सुस्सरआदे०-णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० णि. ५० मि. जह० । छदंस०-बारसक०पुरिम०-भय-दु० णिय० अणंतभागम्भ० । दोवेदणी-थिरादितिण्णियुग. सिया० जह० । चदुणोक० सिया० अणंतभागभहि । तेजा०-क० णिय० संखेंजदिभागभ० । ५२६. देवगदि जह० पदे०७० पंचणा०-सादा०-देवाउ०-देवाणु०-उच्चा०-पंचंत० णि. बं. णि. जह। छदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु० णि० अणंतभागब्भ० । अट्ठक० सिया० अणंतभागब्भ० । पंचिंदि०-समचदु०-वण्ण०४-अगु०४पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि. अजह० संखेजदिभाग०'। वेउवि०. करता है। तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकप जानना चाहिए। ५२५. मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, मनुष्यायु, पश्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेश बन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेश बन्ध करता है। चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ५२६. देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, सातावेदनीय, देवायु, देवगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आठ कषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर, तेजस १. आ०प्रतौ 'अजह. असंखेजदिभागः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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