Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 350
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ३२७ णि तंतु० संखेंजदिभागम्भहियं । तेजा.-क० णि. संखेंजदिभागब्भहिय 4। समचदु०-वारि०-[पर०-उस्सा..] पसत्य०-पजत्त-थिरादितिण्णियुग-सुभगसुस्सर-आर्दै० सिया० ० तु. संखेजदिभागब्भहियं । पंचसंठा-पंचसंघ०अप्पसत्थ०-[अपज्जत्त-] भग-दुस्सर-अणादें सिया० संखेजदिभागभ० । ५२२. देवाउ० जह० पदे० पंचणा०-सादा०-[उच्चा०-] पंचतरा० णि ब. णि० जह० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि० सिया० जह० । छदंसणा०चदुसंज०-हस्स-रदि-भय-दु० णि. 4. तंतु० अणंतभागन्भहिय ब। अट्ठक.. पुरिस० सिया० तंन्तु० अणंतभागब्भहियं बं० । देवगदि-वेउवि०-तेजा.-क०-देवाणु० णि. तंन्तु० संखेंजदिभागम्भहियं० । पंचिंदि०-समचदु०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थ०तस०४-थिरादिछ०-णिमि०' णि० बं० णि. अजह० संखेंअदिमागभहि । वेउव्वि०. अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, परघात, उच्छ्रास, प्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुखर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ५२२. देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और स्त्रीवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। आठ कषाय और पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है १. आप्रतौ 'थिरादिछ्यु. णिमिः' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394