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उत्तरपर्गादिपदे बंधे सब्णियासं
अगु०४-तस०४ - णिमि० पंचंत० णि० बं० णि० जह० । श्रीणगि ०३ - दोवेद०-मिच्छ०अताणु ०४ - इत्थि ० - वुंस० - दोआउ०- दोगदि छस्संठा० छस्संघ० - दोआणु० उज्जो०दोविहा०-थिरादिछयुग०- तित्थ० - दोगोद० सिया० जह० । छदंस० - बारसक० -भय-दुगुं० णि० तंतु० अनंतभाग०भ० | पंचणोक० सिया० तंतु० अनंतभाग भ० | तेजा० क० णि० संखेजदिभागन्भ० । एवं पंचिंदियजादिभंगो० समचदु० वज्जरि०-पसत्थ० सुभगसुस्सर-आदें०-ओरालि ०-ओरालि० अंगो०१० वण्ण०४- अगु०४-तस०४- थिरादितिण्णियुग०णिमि० एदाणं पंचिंदियभंगो ।
५३०. वेउच्चि० जह० पदे०चं०
पंचणा०-सादा० देवाउ०- देवग० आहार०तेजा ० - ० - दोअंगो०- देवाणु० उच्चा० पंचंत णि० बं० णि० जह० । छदंस ० चदुसंज०पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु० णि० बं० २ अनंतभागब्भ० । पंचिदि० समचदु ०-वण्ण०४अगु०४ - पसत्थ० -तस०४ - थिरादिछ० - णिमि०३ - तित्थ० णि० बं० णि० अजह० और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्यानगृद्धि तीन, दो वेदनीय, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो आयु, दो गति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल, तीर्थकर और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । पाँच नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार पचेन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गए सन्निकर्षके समान समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर, आदेय, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल और निर्माण इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५३०. वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, सातावेदनीय, देवा, देवगतिं, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुपवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिका नियम से बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी
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१. ताप्रतौ 'तस० णिमि०' इति पाठः । २. आ० प्रती 'रदि णि० बं०' इति पाठः । ३. आमतौ 'थि दिछयु० णिमि०' इति पाठः ।
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