Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 329
________________ ३०६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे णि बं० तन्तु० संखेंजदिमागणं० । एवं चदणाणा०-दोवेदणी.' णवदंस०-सोलसक०अट्ठणोक०-दोगोद०-पंचंत० । णवरि णीचा. देवगदि०४ वज । एवं एदेण' बीजेण णेदवाओ। ४८६. सम्मामि० आभिणि. उक्क० पदे०६० चदुणा०-छदंस०-बारसक०पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि०० णि. उक्क० । दोवेदणी०-चदुणोक.. दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु० सिया० उक्क० । पंचिंदि०-तेजा०क०समचदु०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थ० -तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै-णिमि० णि. बं. तं.तु. संखेंजदिभागूणं० । थिरादितिण्णियु० सिया० संखेंजभागूणं० । आहार० ओघं० । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं उकस्सपरत्थाणसण्णियासो समत्तो। स्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्ष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् आ।भनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्ष के समान चार ज्ञानावरण, दो वेदनीय, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, दो गोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नीचगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके देवगतिचतुष्कको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार सब सन्निकर्ष ले जाना चाहिए। ४८६. सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, चार नोकपाय, दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आहारक मार्गणामें ओघके समान भङ्ग है और अनाहारक मार्गणामें कामणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ। १.आप्रतौ 'चदुणोक. दोवेदणी.' इति पाठः। २. ता०प्रती एवं णा."एदेण' इति पाठः । ३. श्रा०प्रती 'उक्क० । चदुणोक०' इति पाठः। ४. आ प्रती 'अगु० पसत्थ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394