Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 336
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ३१३ णि० ० णि० जह० । धुवियाणं' पंचिंदियादीणं णि० संखेंजदिभागभ० । परियत्तियाणं सिया० संखेजदिभागब्भ० । ४९९. तिरिक्खाउ० जह० पदे०बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०भय-द ०-तिरिक्ख.-पंचिंदि०-ओरालि० - तेजा० -क०-ओरालि०अंगो०- वण्ण०४-तिरि. क्खाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि बं० णि. अजह. असंखेंजगुणब्भ०। दोवेद०-सत्तणोक०-छस्संठा०-छस्संघ०-उजो०-दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० असंखेंगुणब्भ०।। __ ५००. मणुसाउ० जह० पदे०सं० धुवियाणं सम्मत्तपगदीणं णि० बं० । तित्थ० सिया. असंखेंजगुणब्भ० । थीणगिद्धि०३-दोवेद०-मिच्छ०-अणंताणु०४-सत्तणोक०छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयुग०-दोगोद० सिया० असंखेंजगुणब्भहियं० । ५०१. तिरिक्ख० जह० पदे०५० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तियश्चगतित्रिकको छोड़कर मनुष्यगतिद्विकका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तथा पञ्चेन्द्रियजाति आदि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भी नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ४५९. तिर्यश्चायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, उद्योत, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। _५००. मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव ध्रुवबन्धवाली सम्यक्त्वसम्बन्धी प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। तथा तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि इसका बन्ध करता है तो ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ इसका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ५०१. तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना १. श्रा०प्रती 'मणुसगदिदुर्ग• जि. बं० धुवियाणं' इति पाठः। २. ता० प्रतौ० 'पंचंत० [णि बंणि . अज ] असंखेजगुणभ.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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