Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 345
________________ ३२२ महाबंधे पदे सबंधा हियारे णिरयाणु ० - आदाव-दो गोद० ' सिया० जह० । तिरिक्ख ० - पंचजादि-ओरालि ०-छस्संठा०ओरालि • अंगो०- छस्संघ० - तिरिक्खाणु० - पर० उस्सा० उज्जो० दोविहा० - तसादिदसयुग० सिया० संखेंज दिभागन्भहियं बांधदि । दोगदि - वेउच्चि ० - दोआणु० सिया० संखअदिभाग भहियं बं० | तेजा० क० णि० संर्खेजदिभागव्भहियं ब० । वण्ण०४अगु० - उप० - णिमि णि० बं० तं तु ० संखेजदिभागन्भहियं ब० । वेउब्वि ० गो० सिया० ब ० सिया० अब । यदि बं० अजह० संखेजगुणन्महियं ० । एवं शिद्दाणिद्दाए" भंगो० अट्ठदंस०-मिच्छ० सोलसक० -भय-दु० | ४ ० ५१५. सादा० आभिणि० भंगो । णवरि णिरयगदितिगं वज । ६ ५१६. असादा० जह० पदे०ब० पंचणा० पंचंत० णि० ब० णि० जह० । थीणगिद्धि०३ - मिच्छ० - अनंताणु०४ - इत्थि० णवुंस० - तिष्णिआउ०- णिरयगदि ०२ - कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तिर्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, उद्योत, दो विहायोगति और त्रस आदि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । दो गति, वैक्रियिकशरीर और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर और कार्मणशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम से संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियम से संख्यातभाग अधिक अजधन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार निद्रानिद्राका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान आठ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए | ५१५. सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान है । इतनी विशेषता है कि नरकगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । ५१६. असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिध्यात्त्र, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तीन आयु, नरकगति २. आ०प्रतौ इति पाठः । १. ता० प्रती 'णिरयाणु० श्रा गोद०' आप्रतौ 'णिरयाणु० दोगोद०' इति पाठः । 'उस्सा० दोविहा०' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'वेउन्वि० [ दोभाणु० ] संखेज्जदिभा०' ४. ता०प्रतौ 'संखेज्जदिभा० वण्ण० ४ भगु०' इति पाठः । ५. भा०प्रतौ ' एवं णिद्दाए' इति पाठः । ६. ता० प्रती 'ज० बं० पंचंत० णि० [बं०] णि०' आ०प्रतौ 'जह० पदे० ब ० पंचत० णि० ब ० णि०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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