Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 340
________________ ३१७ उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं पं० णि० तंतु० सादिरेयं दुभागब्भहियं । वउव्वि० जह० पदेयं० देवाउ०-देवग०आहारदुग-देवाणु०-तित्थ० णि पं० णि. जह० । वेउवि अंगो० णि. जहण्णा । एवं वेउवि०अंगो०। आहार० जह० पदे०बं. देवाउ०-देवग०-उन्वि०-वेउवि०अंगो०-आहार०अंगो०-देवाणु०-तित्थ० णि बं० णि० जहण्णा । एवं आहारंगो० । ५०७. देवगदि० देवेसु भवण-वाण-०-जोदिसिय० पढमपुढविभंगो । सोधम्मीसाणेसु आभिणि. जह० पदे०बं० चदुणा०-पंचंत० णि० बं० जहण्णा । थीणगिद्धि०३-दोवेदणी-मिच्छ० - अणंताणु०४ - इत्थि० - णवूस०-आदाव० - तित्थ० - दोगोद० सिया० जहण्णा। छदंस०-बारसक०-भय-दु० णि. बं० तं० तु. अणंतभागब्भहियं० । पंचणोक० सिया० तंतु० अणंतभागब्भहियं० । दोगदि-दोजादि प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु इसका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे साधिक दो भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवायु, देवगति, आहारकद्विक, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका जवन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए । आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, आहारकशरीर आलोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए । ५०७. देवगतिमें देवोंमें तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। सौधर्म और ऐशान फल्पके देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, आतप, तीर्थङ्कर और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो गति, दो जाति, छह संस्थान, औदारिक ३. ता०प्रती एवं आहारंगो देवगदि । देवेसु' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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