Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 339
________________ महाबंचे पदेसबंधाहियारे असंखेजगुण भ० । इत्थि - पुरिस० सिया० असंखेअगुण महि० । एवं वेउव्वि० ० जह० पदे०चं० दोआउ०- दोग दि- दोआणु० सिया० जह० णि० ० जह० । सेसं दुर्गादिभंगो । एवं वेडब्बि० वेड व्वि ० अंगो० । ५०५. पंचिंदि० तिरिक्खअपज० सव्वअपजत्ताणं एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च मूलोघं । णवरि तेज० वाउ० मणुसगदि०४ वजे । ५०६. मणुस० - मणुसपजत - मणुसि० ओघो। णवरि मणुसिणीसु देवाउ ० जह० पदे०चं० पंचणा० छदंसणा ० -सादा० - चदुसंज० - हस्स-रदि-भय-दुगु ०-पंचिंदि ०तेजा० क० समचदु० - वण्ण०४- अगु०४-तस०४-पसत्थ० - थिरादिछ० - णिमि० ' उच्चा०पंचत० णि० बं० णि० अजह० असंखेज्जगुणन्भ० । थीणगि ०३ - मिच्छ०. बारसक ०इत्थि० - पुरिस० सिया० असंखैजगुणन्भ० | देवगदि०३ णि०१ बं० णि० तं तु० संजदिभागन्भहियं ० । आहारदुग - तित्थ० सिया० जह० । वेउव्वि० अंगो० णि० 3 ३१६ देवगदि - देवाणु ० | वेव्वि ० अंगो० यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार अर्थात् देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान देवगति और देवगत्यानुपूर्वीका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए। वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव दो आयु, दो गति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग दो गतिके समान है। इसी प्रकार अर्थात् वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए । ५०५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तक, सब अपर्याप्तक, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवों में मूलोघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर सन्निकर्ष करना चाहिए । ५०६. मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियों में ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । देवगतित्रिकका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य १. ० तो 'वण्ण० तस० ४ पसत्थ० थिरादिछयुग० णिमि०' इति पाठः । २. ता०श्रा० प्रत्योः 'देवगदि० ४णि०' इति पाठः । ३ ता०या०प्रत्योः 'वेडव्वि० णि०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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