Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 332
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ३०९ वण्ण०४-अगु०४-अप्पसत्थ० '-तसादि०४-अथिरादिछ.-णिमि०-णीचा० • पंचंत० णि. बं० णि० अजहण्णा असंखेंजगुणब्भहियं० । णिरयगदि-णिरयाणु० णि. बं. णि. जह० । एवं णिरयगदि-णिरयाणु० ।। ४९०. तिरिक्खाउ०र जह० पदे०५० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-तिरिक्ख०-ओरालि०-तेजा-क० - वण्ण०४-तिरिक्खाणु० - अगु०-उप०-णिमि०णीचागो०-पंचंत० णि० बं० णि० अजह० असंखेंजगुणब्भहियं० । दोवेद०-सत्तणोक०पंचजा०-छस्संठा०३-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-पर०-उस्सा०-आदाउजो०-दोबिहा०तसादिदसयुग० सिया० असंखेंजगुणब्भहियं ।। ४९१. मणुसाउ० जह० पदे०६० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदु०-मणुसगइ-पंचिंदि०-ओरालि० - तेजा०-क० - ओरालि०अंगो०-वण्ण०४-मणुसाणु०१. अगु०-उप०-तस-बादर-पत्ते-णिमि०-पंचंत० णि० अजह० असंखेंजगुणब्भहियं० । दोवेद०-सत्तणोक०-छस्संठा० छस्संघ०-पर० - उस्सा० - दोविहा०-पजत्तापजत्त-थिरादिछयुग०-दोगोद० सिया० अणंतगुणब्भहियं० । अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, बस आदि चार, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् नरकायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए। ४९०. तिर्यञ्चायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, सात नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति और त्रस आदि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ४९१. मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, बस, बादर, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, सात नोकषाय, छह संस्थान, छह संहनन, परवात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि वन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। १. आ०प्रतौ 'भगु०४ पसत्थ०' इति पाठः । २. ता०पा प्रत्यो० 'णिरय..."तिरिक्खाउ.' इति पाठः। ३. आप्रती 'पंचजा०पंचसंठा०' इति पाठः। ४. ताप्रती 'मणुस [गइ]"वष्ण०४ मणुसाणु०' भाप्रती 'मणुसगइ"""वण्ण०४ मणुसाणु०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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