Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 323
________________ ३०० महाबंधे पदेसबंध हियारे भागणं । अप्पसत्थ० - दुस्सर० सिया० संखेजदिभागूणं० । तेजा० क० वण्ण०४- अगु०उप० णि० बं० णि० तं तु ० संखेजदिभागूणं । एवं एदैण बीजेण सब्वाओ पगदीओ दव्वाओ । ४७९. चक्खु ० - अचक्खु ० ओघं । किण्ण-णील-काउ ० असंजदभंगो | णवरि किण्ण- गीलाणं तित्थयरं हेहिम-उवरिमाणं सिया० बं० उक्क० । णत्थि अण्णो विगप्पो । ४८०. तेऊए आभिणि० उक्क० पदे०ब० चदुणा० - पंचंत० णि० बं० णि० उक्क० । थी गिद्ध ०३ - मिच्छ०-अनंताणु ०४ - सादासाद० - इत्थि० णवुंस० - दोगोद० सिया०' उक्क० । छदंस० - चंदु संज०-भय-दु० णि० तं तु० अणंतभागणं । अट्ठक०पंचणोक० सिया० तं तु० अनंतभागणं० । तिष्णिगदि-दोजादिदोसरीर-आहार ०१ दुगछस्संठा० - दोअंगो० - छस्संघ० - तिणिआणु० - उजो० दोविहा० तस थावर-थिरादि - करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । अप्रशस्त विहायोगति और दुःखरका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियम से संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और उपघातका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियम से संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी बीजपदके अनुसार अन्य सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कराके उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ले जाना चाहिए । ४७९. चक्षुदर्शनवाले और अचक्षुदर्शनवाले जीवों में ओघके समान भङ्ग है । कृष्णलेश्या, नीलेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों में असंयत जीवांके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यामें अधस्तन और उपरिम प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियम से उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। अन्य विकल्प नहीं है । ४८०. पीतलेश्या में आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धो चतुष्क, सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियम से अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आठ कषाय और पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियम से अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तीन गति, दो जाति, दो शरीर, आहारक द्विक, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, दो विहायोगति त्रस, स्थावर, स्थिर आदि छह युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदावित् 1 १. ता० प्रतो 'थी गि०३ " [ सादासाद० इस्थि० णवुंस० दोगो० ] सिया० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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