Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 326
________________ उत्तरपदपदेसबंधे सण्णियासं ३०३ भागणं । एवं० पंचदंस०-सत्तणोक० । एदेण कमेण णेदव्वं । ४८३. एवं पम्माए । णवरि एइंदि०३ वज । सुक्काए आभिणि दंडओ मूलोष । णिहाणिहाए उक्क० पदे०५० पंचणा०-चदुदंसणा०-पंचंत० णि० ब० णि० संखेंजदिभागणं० । दोदंस०-मिच्छ०-अणंताणु०४ णि० ब० णि० उक्क० । णिद्दा-पयला. अहक०-भय-दु० णि. बं० अणंतभागूणं० । दोवेदणी०-छण्णोक०-दोगदि'-दोसरीरपंचसंठा०-दोअंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-अप्पसत्थ०-भग-दुस्सर-अणार्दै -[ दोगोद..] सिया० उक्क० । कोधसंज० णि. बं. दुभागणं । माणसंज. णि० बं० सादिरेयं दिवड्डभागणं० । मायासं०-लोभसं० णि० बं० णि. संखेंजगुणही । पुरिस० सिया० संखेंजगुः । पंचिंदि० -तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि. बं. णि. तंतु० संखेजभागूणं० । समचदु०-[वञ्जरि०] पसत्थ०-थिरादिदोण्णियुग-सुभग उक्त सन्निकर्षके समान पाँच दर्शनावरण और सात नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी क्रमसे अन्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कराके उनकी अपेक्षा सन्निकष ले जाना चाहिए। ___४८३. इसी प्रकार अर्थात् पीतलेश्याके समान पद्मलेश्यामें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजाति त्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । शुक्ललेश्याम आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डकका भङ्ग मूलोषके समान है। निद्रानिद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो दर्शनावरण, मिथ्यात्व और भनन्तानुबन्धीचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, छह नोकषाय, दो गति, दो शरीर, पाँच संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो भानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर अनादेय और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर आदि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और अयश-कीर्तिका कदाचित् 1. ता०प्रतौ 'अणंतभागणं । दोगदि' या प्रतौ 'अणंतभागूणं । ........"दोगदि' इति पाठः । २. आ० प्रती 'दोअंगो. पंचसंघः' इति पाठः । ३. आप्रतौ 'लोभसं०णि बं० णि. संखेजगुणही। पंचिंदि०' इति पाठः । ५. ता०आ प्रत्योः 'पिरादितिण्णियुग०' इंति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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