Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 314
________________ उत्तरपगदिपदेस बंधें सष्णियासं २९१ पचक्खाण ०४ णि० बं० अनंतभागूणं० । कोधसंज० ' णि० दुभागूणं० । माणसंज० णि० सादिरेयं दिवडभागूणं० । मायसंज० लोभसंज० - पुरिस० णि० बं० संखेजगुणही ० | णामाणं सत्थाण० भंगो। एवं ओरालि० -ओरालि० अंगो० - वञ्जरि० - मणुसाणु० । ४६४. हस्स० उक्क० पदे ० बं० ओघं । एवं रदि-भय-दु० । णामाणं हेट्ठा उवरिं म सगदिभंगो | णामाणं अष्पष्पणो सत्याण० भंगो | णवरि देवगदिआदीणं णिद्दा: पयला - अपच्चक्खाण ०४ सिया० उक्क० । पच्चक्खाण०४ सिया० तं० तु० अनंतभागूणं० । एवं आभिणि० भंगो ओधिदं ० -सम्मादि० खइग०- उबसम० । ४६५. मणपजव० आभिणिदंडओ' ओघो । णिद्दाए उक्क० पदे०चं० पंचणा०चदुदंसणा० उच्चा० - पंचत० णि० बं० संखेज्जदिभागूणं० । पयला-भय-दु० णि० बं० उक्क० । सादा० सिया० संखेजदिभागूणं । असादा० चदुणोक० सिया० उक्क० । करता है । क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियम से दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वार्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४६४. हास्यका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवको मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । नामकर्मकी प्रकृतियों में से विवक्षित प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्व और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थानसन्निकर्षके समान | इतनी विशेषता है कि देवगति आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव निद्रा, प्रचला और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह उनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार आभिनि बोधिकज्ञानी जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए । 3 ४६५ मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रचला, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । १. ता० प्रतौ 'अणतभा०४ (१) कोधस ज०' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'उवसम० मणपजव० । आभिणिदंडग्रो' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'बं० उ० साद० सिया०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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