Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 312
________________ उत्तरपगदिपदे बंधे सण्णियासं २८९ ४६०. आभिणि० - सुद० ओधि० आभिणि दंडओ ओघो । णिद्दाए उक्क० पदे०बं० पंचणा०-चदुदंसणा ० - उच्चा० पंचत० णि० बं० णि० संखेजदिभागूणं बं० । पयला-भय-दु० णि० बं० णि० उक्क० । सादा० सिया० संखेजभाग ० | असादा०अपच्चक्खाण ०४- चदुणोक० सिया० उक्क० । पच्चक्खाण०४ सिया० तं तु० अनंतभागूणं ० | कोधसंज० णि० बं० णि० दुभागू० । माणसंज० सादिरेयं दिवड्डभागूणं० । मायासंज० - लोभसंज० - पुरिस० णि० संखेजगुणही ० ' । दोगदि तिण्णिसरीर दोअंगो०वजरि०-दोआणु०-थिराथिर - सुभासुभ-अजस० तित्थ० सिया० तं तु ० संखेञ्जदिभागूणं० । पंचिंदि० - तेजा० क० - समचदु० -वण्ण०४- अगु०४-पसत्थ० -तस०४ सुभग - सुस्सर- आदें - णिमि० णि० बं०र णि० तंतु० संखेज्जदिभागूणं० । वेउब्वि० अंगो० सिया० तंतु० P ४६० आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, और अवधिज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम से संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रचला, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । असातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन और पुरुषवेदका नियम से बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो गति, तीन शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशः कीर्ति और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभगु, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध १. ता०आ० प्रत्योः 'संखेज्जदिभागूणं' इति पाठः । २. ताप्रती 'आदे० णि० बं०' इति पाठः । ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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