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महाबंचे पदे सबंधाहियारे
२४१. इथिवेदे पंचाणावरणादिपढमदंडओ उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० पलिदो० सदपुधत्तं । सादासाद ० छण्णोक० चदुआउ० - दोर्गादिदुजादि -आहारदुग-पंचसंठा० पंचसंघ० - दोआणु० आदाउञ्जो० - अप्पसत्थ० - थावरादि ०४थिरादितिष्णियु०-दूभग- दुस्सर- अणादें ० -णीचा० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । पुरिस० मणुस ० - पंचिंदि ० - समचदु० - ओरा० अंगो० - वञ्जरि०
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विशेषार्थ - यहां सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपने अपने स्वामित्वके योग्य स्थानमें एक समय के लिए होता है, इसलिए सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । परन्तु अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के कालके विषय में दो सम्प्रदाय हैं। प्रथमके अनुसार जो विग्रहगतिमें एकेन्द्रियोंके बँधनेवाली प्रकृतियाँ हैं उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है, क्योंकि अधिक से अधिक तीन विग्रह एकेन्द्रियोंमें ही सम्भव हैं। तथा जो केवल त्रसों में बँधनेवाली प्रकृतियां हैं उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है, क्योंकि त्रसोंमें अधिक से अधिक दो विग्रह ही होते हैं । दूसरे सम्प्रदाय के अनुसार देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर इन पाँच प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय ही है, क्यों कि इनका बन्ध करनेवाले जीव कार्मणकाययोग में अधिकस अधिक दो समय तक ही रहते हैं । किन्तु शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है । यहां यह तो स्पष्ट है कि जिनका एकेन्द्रियोंके कार्मणकाययोगमें बन्ध होता है उनका यह काल बन जाता है। परन्तु जिनका एकेन्द्रियों के कार्मणकाययोगमें बन्ध नहीं होता उनका यह काल कैसे बनता है यह विचारणीय है । साधारण नियम यह है कि जो जिस जातिमें उत्पन्न होता है उसके यदि वह सम्यग्दृष्टि नहीं है तो अन्तर्मुहूर्त पहलेसे उस जातिसम्बन्धी प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है । पर अन्यत्र भी मरणके बाद विग्रहगतिमें यह नियम नहीं रहता ऐसा इस कथनसे स्पष्ट होता है । इसलिए एकेन्द्रियोंके विग्रहगति में तिर्यञ्चगतिसम्बन्धी और मनुष्यगतिसम्बन्धी सभी प्रकृतियोंका बन्ध हो सकता है यह इस कथनका तात्पर्य है । देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिको इस नियमका अपवाद रखा है सो उसका कारण यह है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका तो सदैव सम्यग्दृष्टिके ही बन्ध होता है, अतः कार्मणकाययोग में भी इसका बन्ध करनेवाले जीवके अधिक से अधिक दो विग्रह हो सकते हैं। और देवगतिचतुष्कका कामणकाययोग में केवल मनुष्य और तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टिके ही बन्ध होगा, इसलिए यहां भी अधिकसे अधिक दो विग्रह ही सम्भव हैं । यही कारण है कि इन पाँच प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका दूसरे सम्प्रदायके अनुसार भो उत्कृष्ट काल दो समय कहा है ।
२४१. स्त्रीवेद में पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, छह नोकषाय, चार आयु, दो गति, चार जाति, आहारकद्विक, पाँच संस्थान, पाँच सहनन, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि तीन युगल, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्र
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