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उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं णि बं०णि तंतु० अणंतभागूणं बं० । पुरिस० णि. बं० तंन्तु० संखेंजदिगुणहीणं। देवगदि०४-आहार०२-समचदु०-पसत्थ -सुभग-सुस्सर-आर्दै सिया० बं० तं तु. संखेंजदिभागूणं बं० । पंचिंदि०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४-थिराथिर-सुभासुभअजस-णिमि० सिया० संखेजदिभागूणं बं० । जस० सिया० तंतु० संखेंजगुणही० । एवं तिण्णिसंज। इथि०-णस० तिरिक्ख भंगो। णवरि जस० सिया० संखेजगुणहीणं० ।
४१७. पुरिस उक० पदे०५० पंचणा०-चदुदंस०-सादा० चदुसंज-जस-उच्चा०पंचंत० णि बं०णि उकः ।
४१८. हस्स० उक० पदे०५० पंचणा० रदि-भय-दु०'-उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि. उक्क। णिद्दा-पयला-सादासाद०-अपञ्चक्खाण०४-वञ्जरि०-तित्थर सिया० दर्णनावरणका नियमसे बन्ध करता है, किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता हे । पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगतिचतुष्क, आहारकद्विक, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है। पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरु. लघुचतुष्क, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयश कीर्ति और निर्माणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यशःकोर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार मान आदि तीन संज्वलनोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष तिर्यश्चोंमें इनकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है।
४१७. पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशयन्ध करता है।
४१८. हास्यका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, असातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, वर्षभनाराचसंहनन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो
१. ताप्रती रा ( २ ) दिभयदु.' इति पाठः। २. ता प्रतौ 'वजरि । तित्थः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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