Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 295
________________ २७२ महाबंधे पदेस बंधाहियारे संखेजदिभागणं बं० । समचदु०-पसत्थ० सुभग-सुस्सर-आदें णि० ब० तंतु० संखेजदिभागूणं ब। वेउव्वि०अंगो० सिया० त० तु. सादिरेयं दुभागूणं च । वजरि० सिया० तंतु० संखेंजदिभागूणं । जस०' सिया० संखेंजगु० । एवं पयला० । ४३१. चक्खुदं० उक्क० पदे०२० पंचगा.-तिण्णिदंस०-सादा०-उच्चा०-पंचंत० णि० णि. उक्क० । कोधसंज० सिया० तंतु० संखेंजगु० । तिण्णिसंज. णि. बं० णि तंतु० विट्ठाणपदिदं० संखेंजदिभागूणं च सादिरेयं दिवड्डभागणं च । पुरिस०-[जस०] सिया० तंतु० संखेंजगुणही० । हस्स-रदि-भय-दु० सिया० उक्क० । देवगदि०-वेउव्वि० - आहार०-समचदु०-आहारंगो०-देवाणु०२-पसत्थ०-सुभग-सुस्सरनियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग का कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। वनपभनाराचसंहननका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकप जानना चाहिए। ४३१. चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे दो स्थानपतित, संख्यातभागहीन और साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेद और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, आहारकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है १. ता प्रती 'वेउम्वि०अंगो० सिया. तं तु. संखेजदिभा० । जसः' इति पाटः। २. ना प्रती 'श्राहारंगो० । देवाणु' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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