Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 300
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे परिणयासं २७७ णि बं० णि० उक्क० । कोधसंज० णि वं० दुभागूणं बं० । तिण्णिसंज० सादिरेयं दिवड्डभागूणं बं०। ४४०. हस्स० उक्क० पदे०५० पंचणा०-रदि-भय-दु०-[उच्चा०] पंचंत० णि० बं० उक्क० । णिद्दा-पयला-दोवेद०-अपचक्खाण०४ सिया० उक० । चदुदंस० णि• बं० णि तंतु० अणंतभागूणं बं० । पचक्खाण०४ सिया० तंतु० अणंतभागूणं बं० । कोधसंज० णि० ब० णि. दुभागणं बं० । तिण्णिसंज० णि० ब० सादिरेयं दिवड्डभागणं बं । पुरिस०' णि. संखेंजगुणही० । मणुसगदि-पंचिंदि०-ओरा०तेजा०-क-ओरालि अंगो०-वण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४- तस०४-थिराथिर' - सुभासुभअजस०-णिमि० सिया० संखेजदिभागणं । देवग०-वेउव्वि०-आहार०-समचदु०आहार० अंगो०-बजरि०-देवाणु०-[ पसत्थ०-] सुभग-सुस्सर-आदें-तित्थ० सिया० इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोध संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४४०. हास्यका उत्कृष्ट प्रदेश वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, दो वेदनीय और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशचन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमस बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयश-कीर्ति और निर्माणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, आहारकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभन संहनन, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। १. ता०प्रती 'दिवङ्गो (भागूणं )। पुरि ' इति पाठः। २. प्रा०प्रती 'तस थिराथिर' इति पाठः । ३. ता०प्रती 'समच० अ (आ) हार० अंगो०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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