Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 303
________________ २८० महाधे पदेसवंधाहियारे ब० ० । तिष्णिसंज० णि० ब ० सादिरेयं दिवभागूणं बं० । चदुणोक० सिया० अनंतभागूणं ब० । णामाणं सत्याणभंगो । एवं तिरिक्खगदिभंगो मणुसगदि-पंचजादिओरालि०-तेजा०-क०-पंचसंठा० - ओरालि० अंगो० - पंच संघ० वण्ण० ४- दोआणु ० - अगु०४[आदाव- उखो०] तसादिचदुयुग ० ' थिराथिर- सुभासुभ- दूभग-अणादे० ' - अजम० णिमि० । वरि चदुसंठा० - चंदुसंघ० इस्थि० णवुं स उच्चा० सिया० उक्त० । पुरिस० सिया ० संखेजगुणही ० । णामाणं अष्पष्पणो सत्थाणभंगो । ४४५. देवग० उक्क० पदे०चं० पंचणा० उच्चा० - पंचत० णि० चं० णि० उक्क० । थोगि ०३ - [ दोवेदणी ० -] मिच्छ० - अनंताणु ०४-इत्थि० सिया० उक्क० । णिद्दा- पचलाअक० चदुणोक० सिया० तं तु ० अणंतभागूणं बं० । चदुदंस०-भय-दु० णि० चं० तं तु० अनंतभागूणं बं० । कोधसंज० णि० ब ० दुभागूणं० । तिणिसंज० सादिरेयं भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है | नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्मके समान है । इसी प्रकार तिर्यवगतिकी मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आप, उद्योत, बस आदि चार युगल, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहननका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियम से संख्यातगुणहीन अनुष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने अपने स्वस्थानसन्निकर्षके समान है । ४४५. देवगfतका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क और स्त्रीवेदका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, आठ कषाय और चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरण, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है | क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे १. ता०आ० प्रत्योः 'अगु०४ श्रप्पसत्थ० तसादिचदुयुग ०' इति पाठ: । २. ता०श्रा० प्रत्योः 'दुभग दुस्सर अणादे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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