Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 297
________________ २७५ महाबंधे पदेसबंधाहियारे सिया० तंतु० अणंतभागणं ब। कोधसंज० णि. णि. दुभागणं बौं । तिण्णिसंज० णि० ० णि. सादिरेयं दिवड्डभागणं । पुरिस-जस० सिया० संखेंजगु०। तिण्णिगदि-पंचजादि-दोसरीर-छस्संठा०-दोअंगोवंग०-छस्संघ० -तिण्णिआणु० पर०-उस्सा०-उजो०-दोविहा०-तसादिणवयुग-अज. सिया० तंतु० संखेंजदिभागणं व । तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० णि. ' णि० संखेंजदिभागणं । तित्थ० सिया० तंतु० संखेंजदिभागणं व ।। ४३४. अपचक्खाणकोध० उक० पदे०५० पंचणा-णिद्दा-पयला-तिण्णिक०भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० ब० णि० उक्क० । चदुदंस०-पञ्चक्खाण०४ णि० ब० णि. अणंतभागणं । दोवेद०-चदुणोक० सिया० उक० । कोधसंज० णि० ब० दुभागणं । तिण्णिसंज० णियमा सादिरेयं दिवड्डभागणं० । पुरिस० णियमा संखेंजगुणहीणं । मणुस-[ ओरालि. ] ओरालि अंगो०-मणुसाणु-थिराथिर-सुभासुभप्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोध संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेद और यशःकीतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन गति, पाँच जाति, दो शरीर, छह संस्थान, दो शरीरआङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, उद्योत, दो विहायोगति, बस आदि नौ युगल और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदशबन्ध करता है। तेजसशरीर, कामणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४३४. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञाना वरण, निद्रा, प्रचला, तीन कपाय, भय, जुगुप्सा उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरण और प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्ध करता है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मनुष्यगनि, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, ताप्रती 'भगु० ४ उप० णि• बं०' इति पाठः । २. ताप्रती 'कोधसंज० णिय. सादिरेय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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