Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 291
________________ २६८ महाबंधे पदेसबंधाहियारे णिय० दुभागणं बं ० । वज्जरि० - तित्थ० आभिणि० भंगो । कोधसंज० उक० पदे० " ० पंचणा० चदुदंस० - सादा० - तिष्णिसंज० - जस० उच्चा० पंचत० णि० च ं० णि उक्क० । एवं तिष्णिसंज० । इत्थि० णवुंस० इत्थि० भंगो | णवरि चदुसंज० णि० बं० णि० अणु० दुभागूणं० । पुरिस० उक्क० पदे ० बं० पंचणा० चदुदंस० -सादा० -जस०उच्चा० - पंचंत० णि २० उक्क० । चदुसंज० णि० बं० दुभागूणं० । हस्स-रदिदंडओ इत्थवेदभंगो | णवरि चदुसंजलणाणं णि० दुभागूणं बं० । वञ्जरि ' ० - तित्थ० आभिणि० भंगो । एवं पंचणोक० । चदुआउ० इत्थिवेदभंगो | णवरि" चदुसंज० णि० संखेजगुणही ० | एसि पुरिस ' ० - जस० आगच्छदि तेसिं सिया० संखेज गुणहीणं० । णामा - गोदाणं ओघभंगो | णवरि चदुसंज० णि० बं० दुभागूणं बं० । पुरिस० जस० है कि वह चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके समान है । क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, तीन संज्वलन, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार तीन संज्वलनोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि वह चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । हास्य-रतिदण्डककी मुख्यतासे सन्निकर्ष स्त्रीवेदी जीवांके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनों का नियम से बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानीके समान है । इसी प्रकार पाँच नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार आयुओंको मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । जिनके पुरुषवेद और यशःकीर्ति आती हैं, उनका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्म और गोत्रकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुकृत्ष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेद और यशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है या नियमसे बन्ध करता है । बन्धके समय इनका संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इतनी और विशेषता है कि यश: १. ताप्रतौ 'कोधसंज० ज० (उ०) बं०' इति पाठ: । २ ता० प्रा० प्रत्यो० 'पंचंत० णवरि ज० णि०' इति पाठः । ३. ता० प्रतौ 'चदुसंजया (लणा) गं' आप्रतौ 'चदुसंजदाणं' इति पाठः । ४. ता०प्रौ 'दुभं ( भागू० ) । वजरि०' इति पाठः । ५. ता०प्रतौ 'चदुआउ० सीदिभंगो (?) णवरि' श्राप्रती 'चदुश्राउ० सीदिभंगो | णवरि' इति पाठः । ६ आ०पती 'एसि पुरिस० पुरिस०' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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