Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 208
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं मागूणं बं० । एवं आहारअंगो० । अथिर-असुभ-अजस० वेउब्बिय मंगो। २८५. तित्य० उक० पदे०७० देवगदिआदीणं संखेंआदिभागूणं बं० । जस० सिया संखेजगुणहीणं ब०। एवं मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार० संजदासंजद०-ओधिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम-सम्मामि० । णवरि सामाइ०छेदो० दंसणा० इत्थिभंगो। परिहार०-संजदासंजद-वेदग०-सम्मामि० जस० सव्वाणं सिया० उक्क०। २८६. असंजदेसु सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो। णामाणं पंचिंदियतिरिक्खमंगो। णवरि तित्थ० ओघं । किण्ण-णील०-काउ० असंजदभंगो। तेउ० छण्णं कम्माणं णिरयभंगो। मिच्छ० उक्क० पदे०बं० अणंताणु०४ णि० बं० णि० उक्क । बारसक०-भय दुगुं० णि० अणंतभागूणं बं० । इथि०-णकुंस० सिया० उक्क० । पंचणोक० सिया० अणंतभागूणं बं० । [एवं अणंताणु०४-इत्थि०-णवुस०] । अपच्चक्खाण कोध० उक्क० पदे०६० तिण्णिक०-पुरिस०-भय-दु० णि. वं० णि० उक्क० । अट्ठक० णि बं० णि० अणंतभागणं बं० । चदुणोक० सिया० उक्क० । एवं तिण्णिकहना चाहिए । अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष वैक्रियिकशरीरकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकषके समान है। २८५. तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशांका बन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि प्रकृतियोंके संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। यश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में दर्शनावरणका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है तथा परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें यशःकीर्तिका सभीमें कदाचित् बन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। २८६. असंयत जीवोंमें सात कोका भङ्ग नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। कृष्ण, नील और कापोनलेश्यामें असंयतोंके समान भङ्ग है। पीतलेश्यामें छह कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । मिथ्यावके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्क का नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। बारह कषाय, भय, और जुगुप्साका नियमसे अनन्तवें भाग न्यून अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। पाँच नोकषायोंका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे अनन्तवें भागहीन अनुरस्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चार,स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। आठ कषायोंका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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