Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 220
________________ उत्तरपगदिपदेस बंधे सष्णियासं १९७ 0 तस०४- णिमि० णि० ब० अज० असंखेजगुणन्भहियं ब० । समचदु० - हुंड दोविहा०-थिरादिछयुग ० सिया० असंखेजगुणन्भहियं ब० । बेउव्वि० अंगो० णि० ब • णि० जहण्णा । एव वेउव्वि ० अंगो० । ३०५. पंचिंदि० तिरि०अपज० सव्वपगदीणं ओघभंगो । एवं सव्वअपजत्तगाणं तसाणं सव्वएइ दि ० - विगलिंदिय-पंचकायाणं पञ्जत्तापजत्तगाणं च । ३०६. मणुस०३ओघभंगो । गवरि मणुसिणीसु तिरिक्खगदिदंडओ मणुसगदिदंडओ एदियदंडओ ओघं । णिरयग० जह० । पदे ० ब ० पंचिंदि० तेजा० क०• हुंड-वण्ण ०४ - अगु० ४- अप्पसत्थ०' -तस०४- अथिरादिछ० - णिमिं० णि० ब ० णि० अज० असंखेजगुणन्भहियं • ब० । वेउधि० वेउन्वि० अंगो० णि० ब० अज ० संखेज भागन्भहियं ब० । णिरयाणु ० णि० ब० णि० जह० एवं णिरयाणु ० | देवगदि० जह० पदे०ब० पंचिंदि०० क० - समचदु० वण्ण ०४- अगु०४-पसत्थ० -तस० ४- थि। दिछयुग ० - णिमि० णि० बं० णि० अज० असंखेनगुणन्भहियं व० । वेउब्वि० चेउव्वि० अंगो० णि० ब० 1 तेजा बन्ध करता है । किन्तु इनका असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । समचतुरस्रसंस्थान, हुण्डसंस्थान, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह इनका असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | ३०५. पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसीप्रकार सब अपर्याप्त सोंमें तथा सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावर कायिकों में तथा इनके पर्याप्तकों और अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । ३०६. मनुष्यों में ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में तिर्यगतिदण्डक, मनुष्यगतिदण्डक और एकेन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग ओघ के समान है । नरकगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पचन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रलचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार नरकगत्यानुप व की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। १. ता०प्र०प्रत्योः 'अगु०४ पसत्थ०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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