Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 222
________________ उत्तरपदपदेसबंधे सब्णियासं १९९ थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० जह० । एवं मणुसाणु० - तित्थ० । पंचिंदि० जह० पदे०चं० दोगदि० छस्संठा० छस्संघ० दोआणु ० उज्जो० दोविहा०थिरादिछयुग ० - तित्थ० सिया० जह० । ओरालि ० -तेजा ० क० ओरालि० अंगो० वण्ण०४अगु०४-तस०४ - णिमि० णिय० जह० । एवं पंचिंदियभंगो ओरालि०-तेजा०क० - समचदु० - ओरालि० अंगो० - वजरि० - वण्ण०४- अगु०४ - पसत्थ० -तस०४ - थिरादितिष्णि युग०- सुभग- सुस्सर-आदें० - णिमि० । णग्गोध० जह० पदे बं० तिरिक्ख ०-पंचिंदि०तिण्णिसरीर-ओरा० अंगो० वण्ण०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४- उज्जो ० -तस०४ - णिमि० णि० बं० णि० जह० । छस्संघ० दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० जह० । एवं णग्गोधभंगो चदुसंठा० -पंच संघ० अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर-अणादें | सणकुमार याव सहस्सार त्ति सोधम्मभंगो | वरि एइंदियदंडओ वज । ३०९. आणद याव उवरिमगेवजा त्ति सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो । मणुसग० जह० पदे ०० पंचिंदि ० -ओरालि ० -तेजा० क० समचदु० - ओरालि० अंगो० - वञ्जरि ७ स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार मनुष्यत्यापूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पञ्च ेन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव दो गति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकरारीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार पच ेन्द्रिय जातिके समान औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरत्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, तीन शरीर, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसीप्रकार न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानके समान चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भाग, दुःखर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सौधर्म कल्पके देवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें एकेन्द्रियजातिदण्डकको छोड़कर यह सन्निकर्ण जानना चाहिए । ३०९. आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रवेयक तकके देवों में सात कर्मो का भङ्ग नारकियोंके समान है । मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर. तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच१. ता० प्रतौ 'तित्थ पंचिदि०' इति पाठः । २. ता० प्रतौ 'अणाद े ० सणक्कुमार' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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