Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 274
________________ उत्तरपदिपदेसबंधे सगियासं २५१ ओरालि० अंगो० छस्संघ० वण्ण०४- मणुसाणु० - अगु०४ आदाउजो० - अप्पसत्थ० - तसादिचदुयुगल ० - थिरादितिष्णियुग०-दूर्भाग- दुस्सर-अणादै० - णिमि० हेड्डा उवरिं तिरिक्खर्गादिभंगो । णामाणं अप्पप्पणो सत्थाण०: ग०भंगो | णवरि चदुसंठा०-पंच संघ० - अप्पसत्य ० - दुस्सर० इत्थि० - वुंस० उच्चा० सिया० उक्क० । पुरिस० सिया० अनंतभागूणं बं० । ३९७. देवग० उक्क० बं० पंचणा० - छमणा० बारसक० - पुरिस०-भय-दु०उच्चा० - पंचत० णि० चं० णि० उक्क० । सादासाद० चदुणोक० सिया० उक० । णामाणं सत्थाण० भंगो । एवं देवगदि० ४ । ३९८. तित्थ० हेट्ठा उवरि देवगदिभंगो | णामाणं सत्थाण० भंगो । ३९९. उच्चा० उक्क० पदे०चं० पंचणा० पंचंत० णि० चं० णि० उक्क० । श्री गिद्ध ०३ -सादासाद० - मिच्छ० - अनंताणु ०४ - इत्थि० णबुंस० चदुसंठा० - पंच संघ ०अप्पसत्थ० - दुस्सर० सिया० उक्क० । छदंस० बारसक० -भय-दु० णि० बं० णि० तं तु० अनंतभागूणं बं० | पंचणो० सिया० तं तु० अणंतभागूणं बं० । मणुस ० - ओरालि०शरीर, पाँच संस्थान, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहोगति, बस आदि चार युगल, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःखर अनादेय और निर्माणकी मुख्यतासे नामकर्मकी प्रकृतियोंके पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है । तथा नामकर्म की प्रकृतियों का भङ्ग अपने-अपने स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःखरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उच्चगोत्रका कचित् बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है जो इसका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ३९७. देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगतिचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | ३९८. तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग देवगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । ३९९. उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पाँच नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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