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उत्तरपादपदेसबंधे सण्णियासं अणंतभागणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं णग्गोधभंगो तिण्णिसंठा० '-पंचसंघ०अप्पसत्थ०-दुस्सर०।
३८५. तित्थ०* उक्क० पदे०बं० पंचणा०-छदंस०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि उक० । सादासाद०-चदुणोक० सिया० उक्क० । णामाणं सत्थाण भंगो।
३८६. उच्चा० उक्क० पदे०० पंचणा-पंचंत० णि बं० णि० उक० । थीणगिद्धि०३-दोवेदणी०-मिच्छ०-अणंताणु०४ - इत्थि०-णवंस०-अप्पसत्थ० - चदुसंठा-पंचसंघ०-दूभग-दुस्सर-अणादें-तित्थ० सिया० उक० । छदंस०-बारसक०-भय-दु० णि० बं० णि तंतु० अणंतभागणं बं० । पंचणोक० सिया० तं-तु० अणंतभागूणं वं० । मणुस-पंचिंदि०-ओरालि अंगो०-मणुसाणु०-तस० णि बं० तंतु० संखेजदिभागणं बं०। ओरालि०-तेजा.-क०-वण्ण०४-अगु०४-बादर०३-णिमि० णि० बं० णि०
बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मको प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान तीन संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
. ३८५. तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियससे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है।
३८६. उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अप्रशस्त विहायोगति, चार संस्थान, पाँच संहनन, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनाधरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करतो । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और त्रसका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादरत्रिक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन
1. ता०प्रतौ ‘णग्गोदभंगो । तिणि संठा' इति पाठः । २. ता०प्रती 'दुम्सर० तित्थः' इति पाठः ।
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