Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 262
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सष्णियासं २३९ भागणं बं० । पंचिंदि०-ओरालि.-तेजा-क०-ओरालि अंगो०-वण्ण०४-अगु०४-तस०४णिमि० णि. बं० णि. संखेंजदिभागणं बं० । पंचसंठा०-पंचसंघ०-दोविहा०-सुभगदुस्सर-आदे० सिया० तंतु० संखेंजदिभागणं बं० । एवं पुरिस० । ३७४. तिरिक्खाउ० उक० पदे०बं० पंचणा०-णवदंस० मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-तिरिक्ख०-ओरालि.-तेजा.क०वण्ण०४-तिरिक्खाणु०- अगु०-उप० -णिमि०णीचा०-पंचंत. णि० ० णि० संखेंजदिमागणं बं०। दोवेदणी०-सत्तणोक०[पंचजादि-] संठा-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-पर-उस्सा०-आदाउजो०-दोविहा०तसादिदसयुग• सिया० संखेअदिभागणं बं० । एवं मणुसाउ० । णवरि पाओग्गाओ पगदीओ कादवाओ। ३७५. तिरिक्ख० उक्क० पदे०० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-णवूस.. भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि० ब० णि. उक्क० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० उक्क० । णामाणं सत्थाण मंगो। हेट्ठा उवरि तिरिक्खगदिभंगो । इमाणं मणुसग०-पंचजादितिण्णिसरीर-हुंड०-ओरालि अंगो०-असंपत्त०वष्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-आदाउओकसंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और भनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे उत्कृष्ट सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३७४. वियनायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, सात नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति और प्रस आदि दस युगलको कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके प्रायोग्य प्रकृतियाँ करनी चाहिए । ___३७५. तिर्यक्रगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषाय का कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। तथा इन प्रकृतियोंकी अपेक्षा नामकर्मसे पूर्वको और बादकी प्रकृतियोंका भन तिर्यगतिके समान है। इन मनष्यगति पाँच जाति, तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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