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उत्तरपगदिपदे बंधे सब्णियासं
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ब० । आहार० २ - थिरादितिष्णियुग० सिया० उक्क० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स उक्कस्साओ कादव्वाओ । ओरा० उक्क० नं० दोगदि- पंचसंठा० छस्संघ० -दोआणु०अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर-अणादे० सिया० उक्क० । पंचिंदि० -तेजा० क० वण्ण०४अगु०४-तस०४ - णिमि० णि० ब० संखेज दिभागूणं बं० । ओरा० अंगो० णि० ब ं० णि० उक्क० | समचदु० - पसत्थ० - थिरादितिष्णियु० सुभग-सुस्सर-आदें० सिया० संखेदिभागूणं । एवं ओरा० भंगो' पंचसंठा० ओरा० अंगो०- हस्संघ ० - अप्पसत्थ०दूर्भाग- दुस्सर-अणादें ।
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२८९. सुक्काए सत्तण्णं कम्माणं ओघं । मणुसग० उक० [पदे०] ब० पंचिंदि०तेजा० ० क० वण्ण०४- अगु०४-तस०४ - णिमि० णि० ब ० संखेजदिभागूणं ब० । ओरा०-ओरा० अंगो०- मणुसाणु० णि० ब० णि० उक्क० | समचदु०-पसत्थ०-थिरादिदो०- सुभग- सुस्सर-आदें - ० अज ० सिया संखेंज्जदिभागूणं व० । जस० सिया० संखेज्जगुणहीणं ब० । पंचसंठा० छस्संघ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर-अणादें सिया०
बन्ध करता है । जो इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी वन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । आहारकद्विक और स्थिर आदि तीन युगलोंका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है । इसी प्रकार इनका परस्पर उत्कृष्ट सन्निकर्ष कहना चाहिए। औदारिकशरीर के उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःखर और अनादेयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । पश्वेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशका बन्ध करता है । औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर और आदेयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियम से संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। इस प्रकार औदारिकशरीरके समान पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःखर और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२८९. शुक्ल लेश्या में सात कर्मों का भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और मनुष्यस्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशका बन्ध करता है । समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे सख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । यशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । पाँच संस्थान, छह संहनन,
१. श्र० प्रतौ ' एवं ओरा० अंगो०' इति पाठः ।
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२. श्र०प्रतौ 'थिरादिदोभायुः' इति पाठः ।
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