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उत्तरपगदिपदेसबंधे अंतरं
१६९ २६१. खइग० पंचणा०-छदसणा०-सादासाद०-चदुसंज०-सत्तणोक०-उच्चा०पंचंत० जह० जह० चदुरासीदिवाससहस्साणि समऊ ०, उक्क० तेत्तीसं साग० समऊ । [ अज० ज० ए०, उक्क. अंतोमु०]। अट्ठक० जह० णाणा भंगो। अज० ओघभंगो। मणुसाउ० देवभंगो। देवाउ० मणुसभंगो' । मणुसगदिपंचग० जह० अज० णत्थि अंतरं । देवगदि०४ जह० णत्थि अंतरं । अज. ओधिभंगो । पंचिंदियजादिदंडओ आहार०२ ओधिभंगो ।
२६१. क्षायिकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम चौरासी हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागर है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य प्रदेशबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अजघन्य प्रदेशबन्धका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है और देवायुका भङ्ग मनुष्यों के समान है। मनुष्यगतिपश्चकके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचतष्कके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशबन्धका भन अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। पञ्चेन्द्रियजातिदण्डक और आहारकद्विकका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि नरकमें या देवोंमें उत्पन्न होता है, वह और वहाँसे आकर जो मनुष्य होता है,वह भी अपने उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्धके योग्य अन्य विशेषताओंके रहने पर जघन्य प्रदेशबन्धका अधिकारी होता है। इसलिए यहाँ पर पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम चौरासी हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागर कहा है। तथा जघन्य प्रदेशबन्धके समय अजघन्य प्रदेशबन्ध नहीं होता और उपशमश्रेणिमें कुछका और कुछका सातवें आदि गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। आठ कषायोंके जघन्य प्रदेशबन्धका अन्वर काल पाँच ज्ञानावरणके समान ही घटित कर लेना चाहिए। तथा इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तर जो ओघके समान कहा है सो जिस प्रकार ओघसे इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्राप्त होता है, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान और देवायुका भङ्ग मनुष्यों के समान है, यह स्पष्ट ही है। मनुष्यगतिपञ्चकका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती देव और नारकीके ही सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। देवगतिचतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती ऐसा मनुष्य करता है जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर रहा है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अवधिज्ञानी जीवोंके समान है, यह स्पष्ट ही है। पंचेन्द्रियजातिदण्डक और आहारकद्विकका भङ्ग भी अवधिज्ञानी जीवोंके समान है, इसलिए इनका अन्तर काल वहाँ देखकर घटित कर लेना चाहिए।
१. आ०प्रतौ 'मणुसगदिभंगों' इति पाठः । २२
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