________________
उत्तरपदिपदे बंधे कालो
१५३
गदिपंचग० अणु ० ' ज० ए०, उ० तैंतीसं० । देवगदि०४ उक० अणु० ओघं । एवं ओधिदं ० -सम्मा० ।
२४७. मणप० पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दु० - देवर्गादि-पंचिंदि०वे उव्वि० -तेजा० - क ० -समचदु० - वेव्वि ० अंगो० - वण्ण०४ - देवाणु० - अगु०४ - पसत्थ०तस ०४ - सुभग- सुस्सर - आदें० - णिमि० - तित्थ० उच्चा०- पंचंत० उ० ज० ए०, उ० बेसम० ।
साधिक व्यालीस सागर है । मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - आभिनिबोधिकज्ञान आदि तीन ज्ञानोंका उत्कृष्ट काल चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर है । यही कारण है कि यहाँ पर पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है । सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसका पहले अनेक बार खुलासा कर आये हैं । सर्वार्थसिद्धिमें और वहाँ से निकलकर मनुष्य होने पर संयमासंयम या संयम ग्रहण करनेके पूर्वतक जीव अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध करता रहता है और श्रेणि आरोहण करके आठवे गुणस्थानके अन्ततक तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करता रहता है । यह काल साधिक तेतीस सागर होता है, इसलिए यहाँ इन पाँच प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध संयमासंयम गुणस्थानतक प्रारम्भके पाँच गुणस्थानों में होता है, पर यहाँ आभिनिबोधिकज्ञान आदिका प्रकरण है, इसलिए यहाँ यह देखना है कि केवल सम्यक्त्वके साथ और सम्यक्त्व व संयमासंयमके साथ जीव अधिक से अधिक कितने काल तक रहता है। केवल सम्यक्त्वके साथ रहनेका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, इस बात का उल्लेख तो हमने इसी विशेषार्थके प्रारम्भमें किया ही है । किन्तु सम्यक्त्वी जीव कहीं केवल सम्यक्त्वके साथ और कहीं सम्यक्त्व व संयमासंयमके साथ लगातार यदि रहता है तो उस कालका योग साधिक बयालीस सागर होता है, इसलिए यहाँ प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक बयालीस सागर कहा है । सर्वार्थसिद्धि में मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग और वार्षभनाराच संहनन इन पाँच प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । ओघसे देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जो काल कहा है वह यहाँ अविकल बन जाता है, इसलिए यह भङ्ग ओघके समान कहा है । अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंका काल आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके ही समान है, इसलिए इनका भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा है।
२४७. मन:पर्ययज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है ।
१. ता०प्रतौ 'मणुसगदि पंचग० मणुसगदि पंचन० (१) अणु०' इति पाठः । २०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org