________________
महाबंधे पदेसबंधाहियारे
२३१. देवेसु पंचणा० - छदंसणा ० - बारसक० - पुरिस०-भय-दु०. मणुस ० - पंचिंदि०तिण्णिसरीर - समचदु० - ओरा ० अंगो० - वञ्जरि ० - वण्ण०४ - मणुसाणु० - अगु०४-तस०४ - पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदें० - णिमि० - तित्थ ० उच्चा- पंचंत० उ० ज० ए०, उ० बेसम० अणु० ज० ए०, उ० तैंतीसं० । श्रीणगिद्धि०३ - मिच्छ० - अनंताणु०४ उक्क० ओघं । अणु० ज ए०, उ० ऍक्कत्तीसं० । सेसाणं उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । एवं सव्वदेवाणं अष्पष्पणो हिंदी णेदव्वा ।
१४२
२३२. एइंदिए धुवियाणं तिरिक्ख० तिरिक्खाणुपु० णीचा० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । एवं सव्वाणं उक्कस्सपदेसंबंधो । अणु० ज० ए०, उ० असंखेजा लोगा । तीनों प्रकारके मनुष्योंमें कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । पर यह उत्कृष्ट काल जिस भवमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ होता है उस भवकी अपेक्षा से जानना चाहिए । यहां मनुष्यिनीके भी तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका निर्देश किया है। इससे ज्ञात होता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध जिस भवमें प्रारम्भ होता है उस भवमें उसका उदय नहीं होता, क्योंकि तीर्थङ्कर स्त्रीवेदी नहीं होते ऐसा प्रमाण पाया जाता है । अन्य सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है ।
२३१. देवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, वजर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सब देवोंमें अपनी अपनी स्थिति जाननी चाहिये ।
विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंमें पाँच ज्ञानावरणादि कुछ प्रकृतियाँ
बन्धनी हैं । पुरुषवेद आदि जो कुछ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं सो सम्यग्दृष्टि वे भी ध्रुवबन्धिनी हैं और सर्वार्थसिद्धि में आयु तेतीस सागर है। देवों में इतने काल तक इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिये यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । स्त्यानगृद्धि आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता और मिध्यादृष्टि जीव नौवें ग्रैवेयक तक ही होते हैं, इसलिये इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है । शेष प्रकृतियाँ या तो सप्रतिपक्ष हैं या अध्रुवबन्धिनी हैं, अतः उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । सब देवोंमें यह काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । मात्र जिन देवोंकी जो उत्कृष्ट स्थिति हो उसे ध्यान में रखकर यह काल लाना चाहिये । साथ ही नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें प्रथम दण्डक और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके कालमें कोई अन्तर नहीं रहता है ।
२३२. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तथा तिर्यचंगति, तिर्यख गत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org