________________
१३४
महाबंधे पदेसबंधाहियारे वेउव्वियछ. आहारदुग-तित्थ० ओघं। सेसाणं दंडगाणं णाणा भंगो। असण्णिपच्छागदस्स त्ति भाणिदव्यं । असण्णी० ओघो। णवरि वेउव्वियछ० जोणिणिभंगो । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं जहण्णसामित्तं समतं ।
एवं सामित्तं समत्तं ।
कालाणुगमो २२५. कालाणुगमेण दुवि०-जह० उक० च । उक्क० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-छदंस-बारसक०-भय-दु०-पंचंत० उकस्सपदेसबंधो केवचिरं कालादो होदि ? जह० एग०, उक्क० वे सम० । अणु० प०बं०कालो केवचिरं ? अणादियो अपज्जवप्लिदो अणादियो सपज्जवसिदो सादियो सपजवसिदो। योसो सादियो सपञ्जवसिदो तस्स इमो णिद्देसो-जह० एग०, उक्क० अद्धपोग्गल । ओघेण सव्वासि' उक० पदे०कालो जह० एग०, उक्क० बेस । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताण०४-ओरा०तेजा०-क०-वण्ण. -अगु०४-उप०-णिमि० अणु० ज० ए०, उ० अणंतकालमसंखें । कर्मों के बन्धसे सम्पन्न और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर दो गतिका जीव उक्त आयुओंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है । वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। शेष दण्डकोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका स्वामित्व कहते समय असंज्ञियोंमेंसे आकर उत्पन्न हुए जीवके कहना चाहिए । असंज्ञियोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें वैक्रियिकषटकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनियोंके समान है। अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
कालानुगम २२५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दशनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका कितना काल है ? अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सात काल है। उनमें से जो सादि-सान्त काल है उसका यह निर्देश है-जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। आगे भी ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरूलघु, उपघात और निर्माणके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति,
१ ता०प्रतौ बंधो काले केवचिरं इति पाठः। २ आ०प्रतौ अपजवसिदो सादियो इति पाठः । ३ ता. प्रतो अद्धपोग्गल सब्वासिं इति पाठः। ४ श्रा०प्रतौ तेजा. वण०४ इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org