________________
लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन सम्पूर्ण लोक घनोदधि, घनवात और तनुवात वलयों से परिवेष्टित रहता है। अधोलोक में रत्नप्रभा आदि सात नरक पृथ्वियाँ हैं। मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। जम्बूद्वीप में भरत, ऐरावत आदि सात क्षेत्र और हिमवान आदि छह वर्षधर पर्वत हैं तथा इसी द्वीप के मध्य सुमेरु पर्वत है। ऊर्ध्वलोक में १२ वैमानिक देवलोक, नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान हैं। पाँचवें अनुत्तर विमान से ऊपर सिद्धशिला का भी वर्णन किया गया हैं।
सप्तम अध्याय 'काललोक' में उपाध्याय विनयविजय की काल - सम्बन्धित सभी मान्यताओं का विवेचन किया गया है। काल को पृथक् द्रव्य मानने के सम्बन्ध में विनयविजय द्वारा उपस्थापित नौ तर्कों का भी निरूपण किया गया है। इसी अध्याय में काल द्रव्य का स्वरूप, उनकी अनस्तिकायता, कार्य और उसके प्रकारों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत है । प्रमाणकाल के अन्तर्गत संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन तीन भेदों का विशेष स्वरूप उद्घाटित किया गया है। जैन दर्शन में पल्योपम, सागरोपम, पुद्गल परावर्त आदि काल भेदों का निरूपण अन्य भारतीय दर्शनों से इसे वैशिष्ट्य प्रदान करता है। विनयविजय द्वारा तोल और माप के आधार पर किए गए प्रमाणकाला निरूपण भी किया गया है।
अष्टम अध्याय 'भावलोक' में आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में जैनदर्शन का अन्य दर्शनों के साथ मन्तव्य भेद स्पष्ट किया गया है। आत्मा की पर्याय अधिक से अधिक पाँच भाव वाली होती है- (१) औपशमिक (२) क्षायिक (३) क्षायोपशमिक (४) औदयिक और (५) पारिणामिक। कुछ जैनाचार्य छठे भाव के रूप में सान्निपातिक भाव भी स्वीकार करते हैं । औपशमिक आदि छहों भाव जीवों की पर्याय से सम्बद्ध हैं तथा अजीवों में भी औदयिक एवं पारिणामिक भाव स्वीकार किए जाते हैं। भावों का कर्म, गति और गुणस्थान की अपेक्षा से विवेचन किया गया है।
इस प्रकार उपाध्याय विनयविजय विरचित लोकप्रकाश ग्रन्थ मात्र आकाशीय लोक का ही निरूपण नहीं करता है, अपितु इसमें षड्द्रव्यों एवं पाँच भावों की भी चर्चा हुई है। सर्वाधिक चर्चा जीवद्रव्य, क्षेत्रलोक एवं काललोक की प्राप्त होती है । प्रस्तुत ग्रन्थ में क्षेत्र लोक का संक्षेप में ही विवेचन किया गया है तथा द्रव्य, काल एवं भाव लोक का विशेष समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन से जैन दर्शन की विभिन्न सूक्ष्म मान्यताओं का बोध हुआ है। यह ग्रन्थ जैन दर्शन की विभिन्न तत्त्वमीमांसीय दार्शनिक मान्यताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा है किन्तु कहीं कहीं ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा का भी समायोजन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में लोकप्रकाश के तत्त्वमीमांसीय पक्ष को अध्ययन का विषय बनाया