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कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन २२
माना गया है और उनकी किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति आवश्यक मानी गयी है। तीव्र आवेगों के निरोध के लिए तो एक ही मार्ग है कि उन्हें उनके विरोधी आवेगों के द्वारा शिथिल किया जाये। स्पीनोजा की मान्यता यही है कि कोई भी आवेग अपने विरोधी और अधिक शक्तिशाली आवेग के द्वारा ही नियंत्रित या समाप्त किया जा सकता है । १ जैन एवं अन्य भारतीय चिन्तकों ने इस सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण अपनाया है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि शान्ति से क्रोध को मृदुता से मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए । २ आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य हेमचन्द्र भी यही । कहते हैं । ३ धम्मपद में कहा है कि अक्रोध से क्रोध को, साधुता से असाधुता को जीतें तथा कृपणता को दान से और मिथ्या भाषण को सत्य से पराजित करें। महाभारत में भी लगभग इन्हीं शब्दों में इन वृत्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करने का निर्देश है । " महाभारत और धम्मपद का यह शब्द - साम्य और दशवैकालिक एवं धम्मपद का यह विचार - साम्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है।
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वस्तुतः कषाय ही आत्म - विकास में बाधक है। कषायों का नष्ट हो जाना ही भव-भ्रमण का अंत है। एक जैनाचार्य का कथन है- 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव' - कषायों से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि साधक को हमेशा यही विचार करना चाहिए कि मैं न तो क्रोध हूँ, न मान, न माया, न लोभ ही हूँ अर्थात् ये मेरी आत्मा के गुण नहीं हैं। अतएव मैं न तो इनको करता हूँ, न करवाता हूँ, और न करने वालों का अनुमोदन ( समर्थन ) करता हूँ ।
इस प्रकार कषायों को विकृति समझकर साधक शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए इनसे दूर होकर शीघ्र निर्वाण प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इन चारों दोषों का त्याग कर देने वाला पाप नहीं करता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार महादोषों को छोड़ देने वाला महर्षि न तो पाप करता है, न करवाता है । " कषाय-जय से जीवनमुक्ति को प्राप्त कर वह निष्काम जीवन जीता है।
१.
स्पीनोजा नीति, ४/७
२. दशवैकालिक, पृ. ८/३९
३.
( अ ) नियमसार, ११५ (ब) योगशास्त्र, ४ / २३
४. धम्मपद, २२३
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महाभारत, उद्योग पर्व - उद्धृत धम्मपद
भूमिका
६. नियमसार, ८१
७.
५.
सूत्रकृतांग, १/६/२६
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