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कषाय और कर्म
कभी एकेन्द्रिय, कभी द्वीन्द्रिय, कभी त्रीन्द्रिय, कभी चतुरिन्द्रिय एवं कभी पंचेन्द्रिय के शरीर में जीव का समय चार संज्ञाओं की पुष्टि में व्यतीत होता है। उत्तराध्ययन में कहा है-२६ मोहनीय और असातावेदनीय कर्म के उदय से जब चेतनाशक्ति विकारयुक्त होती है, तब संज्ञाएँ जागृत होती हैं। संज्ञाएँ चार हैं- १. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा, ३. मैथुन संज्ञा; ४. परिग्रह संज्ञा। समवायांग में संज्ञाएँ दस बताई गई हैं-२० १. आहार २. भय ३. मैथुन ४. परिग्रह ५. क्रोध ६. मान ७. माया ८. लोभ ९. ओध १०. लोक। चार संज्ञा आहारादि से लोभ कषाय की मुख्यता है। समवायांग से क्रोधादि कषायों को भी संज्ञा रूप प्रतिपादित किया गया है। जैसा-जैसा बाह्य निमित्त मिलता है, वैसीवैसी संज्ञाएँ प्राय: जागृत होती हैं।
ज्ञानदशा में निराहार संकल्प, निर्भयता, ब्रह्मचर्य एवं निष्परिग्रहता में निरत होकर साधक संज्ञाओं को तोड़ देता है। यद्यपि ज्ञान आत्मा का गुण है; किन्तु अज्ञानावस्था में मात्र ज्ञानधारा नहीं अपितु रागधारा/कर्मधारा का संयोग होता है। रागद्वेषादि रहित मात्र जानना ज्ञानधारा है एवं कषायभाव सहित जानना कर्मधारा है।९ जब केवल जानने की क्रिया होती है, तब जीव ज्ञाता कहलाता है तथा जब ज्ञान के साथ कषाय जुड़ जाता है, तब जीव स्वयं को कर्ता मानता है। ज्ञान से जानना होता है, जैसे यह बगीचा है, इसमें भाँति-भाँति के वृक्ष हैं, नाना-प्रकार के पुष्प विकसित हो रहे हैं; किन्तु यह बगीचा मेरा है, ये वृक्षारोपण मेरे द्वारा किए गए हैं, इस ज्ञान के साथ कर्तृत्वभाव जुड़ा है, यह कर्मधारा है। कर्मधारा के कारण कर्म-परमाणु आकर्षित होकर आत्मा के साथ एक-क्षेत्रावगाही के रूप में बंध जाते हैं। ३० कर्मबंध के कारण संसार-संबंध होता है। जब जीव कर्मधारा से विरत हो ज्ञान-धारा में स्थित होता है, तब अकषाय गुण प्रकट होकर जीव शुद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। विभाव दशा से स्वभाव दशा को उपलब्ध होता है।
___ अजीव : कषाय का फल-कर्म ज्ञान गुणयुक्त जीवतत्त्व है एवं ज्ञानादि गुणों से रहित अजीव तत्त्व है। जिसमें चेतना नहीं है, वह अजीव है। ३१ २६. (अ) उत्तराध्ययन अ. ३१/गा. ६ २९. शान्तिपथ प्रदर्शन/अ. १०/पृ. ६६ (व) स्थानांग स्थान ४
३०. तत्त्वार्थसूत्र/अ. ८/सू. ३ ।। २७. समवायांग/समवाय १०
३१. उत्तराध्ययन/अ. ३६/गा. १ २८. स्थानांग/स्थानक वृत्ति
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