________________
कषाय और कर्म
१११
बताया गया है। स्थानांग-सूत्र में नौ प्रकार का पुण्य का विवेचन है-८
(१) अन्नपुण्य- अन्न देना, (२) पान पुण्य- जल देना, (३) लयन पुण्य - स्थान देना, (४) शयन पुण्य- शय्या देना, (५) वस्त्र पुण्य- वस्त्र देना, (६) मन पुण्य- शुभविचार करना, (७) वचन पुण्य- मधुर एवं हितकारी भाषा बोलना, (८) काय पुण्य- शरीर से सेवा देना, (९) नमस्कार पुण्य- पूज्यवर्ग को आदर देना।
यद्यपि कई बार बाह्य में शुभपुण्य प्रवृत्ति दिखाई देती है; किन्तु अन्तरंग में कषाय तीव्रता से अशुभ हेतु होता है, तब पुण्य अल्प एवं पाप बहुल होता है। विशेष महत्त्व भाव-जगत का होता है। शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ हैं। एक डॉक्टर किसी की पीड़ा मिटाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे यदि रोगी स्वस्थ न भी हो, तो भी डॉक्टर अपनी शुभ-भावना से पुण्य का बन्ध करता है। पुण्य-बन्ध की कसौटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है; किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय है। निश्चय-दृष्टि से मनोवृत्तियाँ कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहार-दृष्टि से बाह्य क्रिया से भी शुभाशुभ का निश्चय होता है। क्रिया तथा भाव दोनों ही बन्ध के कारण माने गए हैं।
__ मन्द कषाय, भावों की शुभ्रता, आत्मा का आध्यात्मिक विकास पुण्य-भाव हैं एवं जिनसे इस संसार में भौतिक समृद्धि एवं आध्यात्मिक वातावरण प्राप्त होते हैं, वे पुण्यकर्म हैं। शुभभावों से शुभ कर्म-परमाणु आकर्षित होते हैं और आत्मा के साथ बन्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं, ये पुण्यकर्म हैं।
आचार्य अभयदेवसूरि का कथन है कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभकर्मों के उदय से प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है। ९२
८७. भगवतीसूत्र/७/१०/१२१ ८८. स्थानांगसूत्र स्थान ९ ८९. जैनधर्म/पृ. १६०
९०. दर्शन और चिन्तन/ख. २/पृ. २९६ ९१. स्थानांग/टीका/१/११-१२ ९२. योगशास्त्रअ. ४/गा. १०७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org