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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
पृथ्वी नृपति नराणां १५ पृथ्वी उन राजाओं, जागीरदारों पर हँसती हुई कहती है- "मैं कभी किसी के साथ गई नहीं किन्तु मुझे मेरी-मेरी कहने वाले यहाँ सदा रहे नहीं । " किसका गर्व ? और किसलिए गर्व ?
६. शक्ति के आधार पर स्वयं को उच्च एवं अन्य को निम्न मानने पर विचार आना चाहिए कि समस्त आत्माएँ सिद्ध समान हैं। किसका तिरस्कार करना? और क्यों करना ? वस्तुतः मूल में आत्मा अनन्तज्ञान, दर्शन आदि गुणसम्पन्न है तो अल्प ज्ञानादि में अहंकार होना चाहिए या खेद ?
७. मानजय हेतु विनय गुण धारण करना चाहिए। 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है - " मान का प्रतिपक्षी गुण विनय है ! विनय के अनेक भेद हैं- लोकोपचार अर्थात् माता-पिता का विनय करना । लोकोत्तर अर्थात् मोक्ष हेतु से विनय करना ! भय, अर्थलिप्सा या कामभोग बाँछा के हेतु से किया विनय ( नमन ) उत्तम विनय नहीं है । विनय सहज हो । संत नामदेव चूल्हे से रोटियाँ उतारकर घी लेने गये । एक कुत्ता उन रोटियों को मुँह में दबाकर दौड़ पड़ा। संत ने जैसे ही देखा, वे हाथ में कटोरी लिए कुत्ते के पीछे भागने लगे और मृदुतापूर्वक कहने लगे, 'प्रभो! रूको; रोटियाँ रूखी हैं, घी लगाने दो।' कुत्ते के शरीर में स्थित आत्म-तत्त्व पर संत की दृष्टि होने से उसके प्रति भी मृदुलता थी ।
द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध प्रसंग है। जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में सुदामा के आने पर भी श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गए और पाँव धोने के लिए स्वयं बैठे ! धूलि - धूसरित पाँवों का प्रक्षालन करने के लिए पानी लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी
'ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कटंक जाल लगे पुनि जोए, हाय महादुख पायो सखा तुम, आए इतै न कतै दिन खोए । देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करि के करुणानिधि रोए, पानी परात को हाथ छुयो नहीं, नैनन के जल सों पग धोए ।।'
सम्यग्दृष्टि से अधिक देश - विरत श्रावक एवं उससे अधिक संयत (मुनि) में मान कषाय की मन्दता होती है । भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य, चौदह हजार श्रमणों के नायक गौतम गणधर एक श्रावक से क्षमा-याचना करने गये । क्षमा-प्रार्थना करने में अहंकार बाधक नहीं बना। साधक में मार्दव-धर्म प्रकट होता जाता है।
१५. सूक्तिमुक्तावली / पृष्ठ १५
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१६. उत्तराध्ययन/ अ. २९ / गा. ६९
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