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कषाय-जय
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__लोभ कभी इतना परिष्कृत होता है कि लोभ ही नहीं लगता। व्यक्ति-प्रेम, पदार्थ-प्रेम स्वाभाविक प्रतीत होता है। जबकि प्रेम राग-भाव की परिणति है। लोभ कषाय का एक रूप राग भाव है। कामना-पूर्ति के लिए व्यक्ति सब कुछ कर गुजरने का मानस बना लेता है। भले वह कामना सत्ता, सम्पत्ति, सुन्दरी आदि किसी से भी सम्बन्धित हो।
लोभ कषाय से निरन्तर आकुलता-व्याकुलता बनी रहती है। प्राप्त परिस्थिति में वह सहज प्रसन्न नहीं रह पाता है। इच्छा पूर्ति न होने पर वह हत्या और आत्म-हत्या के स्तर तक पहुँच जाता है। कषाय ग्रस्त आत्मा में मलिनता बढ़ती है, कर्म-बन्धन होता है तथा अनन्त दुःखों का सर्जन होता है। लोभजय हेतु चिन्तन :
१. सांसारिक आकर्षण की डोर में बँधा जीव चतुर्गति भ्रमण करता है। कभी पाप का बीज बोकर असह्य दुःख भोगने हेतु नरक में जाता है, कभी तिर्यञ्च गति में पशु-पक्षी, पत्थर-पानी, अग्नि-वायु, वनस्पति आदि के रूप में वध, बन्धन, भार-वहन, ताड़ना-तर्जना, छेदन-भेदन रूप दुःख सहन करता है, कभी नर-जीवन पा कर बचपन में पराधीनता, यौवन में भोग-जाल और वृद्धत्व में रोग-जर्जरादि कष्ट उठाता है। कभी स्वर्गीय सुखों को पाता है; किन्तु वहाँ भी ईर्ष्या, भोग-लिप्सा आदि दुःख मोल लेता है। ऐसे सांसारिक-भोग सुखों का लोभ क्यों करना, जिनसे संसार-वृद्धि हो।
२. सांसारिक भोगों में सुखाभास होता है, सुख नहीं। पर-पदार्थों से, परद्रव्यों से कभी शाश्वत सनातन सुख नहीं मिल सकता है। यथा
'मंथन करे दिन रात जल, घृत हाथ में आवे नहीं, रज रेत पेले रात दिन, पर तेल ज्यों पावे नहीं। सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा, मिलती नहीं व्यापार में, निज आत्मा के भान बिन, त्यों सुख नहीं संसार में।'१९
३. भौतिक सुविधा-साधन भी लोभ से नहीं, पुण्य से प्राप्त होते हैं। जहाँ लोभ है, वहाँ व्याकुलता है। प्राप्त पदार्थों के संरक्षण की चिन्ता, वियोग का भय बना रहता है।
४. इच्छा मात्र बन्धन का कारण है। जन्म-मरण के चक्र में निमित्त इच्छा है। लोभ कषाय से इच्छा पैदा होती है। १९. पं. हुकमचन्द भारिल्ल बारह भावना
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