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कषाय-जय
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माया कुटिलता का अपर पर्याय माया है। मायाचारी सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। मायावी की त्रियोग एकरूपता नहीं होती। भावों में मलिनता, वचनों में मधुरता, क्रिया में विश्वासघात होता है। वह छल-कपट द्वारा कार्यसिद्धि चाहता है। वह सोचता है, उसका कपट कोई नहीं जानेगा; किन्तु प्रपंच लम्बे समय तक टिक नहीं सकता है। समय आने पर बात स्पष्ट हो जाती है, पुनः उसका कोई विश्वास नहीं करता। कहावत है- काठ की हांडी दो बार नहीं चढ़ती। बार-बार किसी को ठगा नहीं जा सकता। 'मुख में राम, बगल में छुरी' कहावत को चरितार्थ करने वाले को कोई हार्दिक सम्मान नहीं देता।
सभ्यता के नाम पर मायाचारी में व्यक्ति अपनी ऊँची स्थिति जताता है। जिससे भ्रमित हो कर कई सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं, किन्तु सच्चाई प्रकट होने पर आलोचना होती है। मनोरंजन हेतु से किया गया असत्य मायापूर्ण व्यवहार कई बार जानलेवा बन जाता है। मायावी सदा शंकाग्रस्त रहता है, कहीं भेद प्रकट न हो जाए। बलवानों से किया कपट महँगा पड़ जाता है, खतरा पैदा हो जाता है। मायाजय हेतु विविध विचार बिन्दु :
१. कार्यसिद्धि छल-प्रपंच से नहीं पुण्योदय से होती है। सफलता का योग होने पर सहज कार्य होता है। असफलता का योग होने पर छल-माया भी सिद्धि में सहायक नहीं बनती है। पुण्य का बन्ध पवित्रता, सरलता से होता है।
२. सरलता धर्म की जननी है। सरलता बिना मुक्ति संभव नहीं है। सुई में प्रवेश लेने हेतु धागे को सीधा होना होता है, सरल साफ-सुथरी जमीन में बीज बोया जाता है, उसी प्रकार सरल हृदय में सम्यक्त्व रूपी बीज-वपन होता है।
३. माया और असत्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। सरल-व्यक्ति को असत्य का आश्रय नहीं लेना पड़ता। गढ़े-गढ़ाये बहानों को याद नहीं रखना पड़ता। सरल आदमी तनाव में नहीं अपितु अपनी मस्ती में जीता है।
४. मायावी अपने ही शब्द-जाल में फँस जाता है। कपट से ग्रहण किया धन अधिक समय नहीं टिकता है। स्वार्थ की गंध से दूषित अपवित्र सम्बन्ध लम्बे समय नहीं चलते हैं।
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