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कषाय-जय
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निवेदन करने पर प्रभु ने कहा, 'राजन! यह दुर्गन्धा कुछ ही समय में दुर्गन्ध से मुक्त होकर सौन्दर्य प्रतिमा बनकर निखरेगी और भविष्य में तुम्हारी रानी बनेगी।' कुरूपता सुरूपता में और सुरूपता कुरूपता में परिवर्तित होती है। अथाह रूपराशि सम्पन्न सनत्कुमार चक्रवर्ती की काया कालान्तर में सोलह रोगों से ग्रस्त हो गई थी, अतः हे जीव! देह की सुन्दरता का क्या अभिमान करना?
२. सत्ता, सम्पत्ति, सुविधा, साधन, सत्कार, सम्मान, प्रज्ञा, कला के उत्कर्ष में अहंकार पुष्ट होने पर विचार करना चाहिए- हे आत्मन्! पुण्य-कर्म के उदय से तुझे ये सब अनुकूलताएँ प्राप्त हुई हैं! पाप-कर्म के उदय से प्रतिकूलताएँ मिलती हैं। पुण्य और पाप – दोनों कर्म हैं, जड़ तत्त्व हैं। जीव और जड़ सर्वथा भिन्न तत्त्व हैं। जड़ तत्त्व के आधार पर अपना मूल्यांकन करना अज्ञान है। जीव सदा से एकाकी है, जड़ तीन काल में अपना हुआ नहीं, अपना होता नहीं। कर्म अपना फल प्रदान करके निर्जरित हो जाता है। पुण्य के उदय में हर्ष, पाप के उदय में शोक-दोनों ही बन्धन के कारण हैं।
३. स्वजन-परिजन आदि चेतन जगत् के संयोग में भी व्यक्ति अभिमान करता है। स्वजनों की योग्यता का गर्व होता है? पति के कमाऊ होने का गर्व पत्नी को, पत्नी की सुन्दरता का अभिमान पति को होता है। सन्तान की प्रतिभा का अहंकार माता-पिता करते हैं। संयोगों में मान कषाय होने पर अनित्य भावना का चिन्तन हो। संयोग कभी शाश्वत नहीं होता। संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। सराय में आया पथिक जैसे प्रातः समय अपने गन्तव्य की ओर प्रयाण कर जाता है, संध्या काल में वृक्ष पर आए पक्षी रात्रि विश्राम कर भोर होने पर अपनी-अपनी दिशा में उड़ जाते हैं; उसी प्रकार आयुष्य क्षय होने पर सब जीव संयोग के धागे तोड़ कर अगली गति में प्रस्थान कर देते हैं। संयोगों में अभिमान कैसा?
४. जल में उत्पन्न होकर भी जलज उससे भिन्न रहता है, उसी प्रकार काया में व्याप्त होकर भी चेतना उससे पूर्णतया भिन्न है। जब जीव से काया भिन्न है, तो कामिनी, कुटुम्ब आदि अभिन्न कैसे हो सकते हैं? अनन्तकाल की यात्रा में हर जीवन में अनेकों प्राणियों से संबंध स्थापित किए एवं उनमें ममत्व किया है, किन्तु कभी कोई संबंध स्थायी नहीं रहा। अतः हे चेतन! संबंधों के आधार पर अहंकार मिथ्या है।
५. जमीन-जायदाद की मालिकी का गर्व किसका टिक पाया है? 'हसन्ति
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