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कषाय और कर्म
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में जुगुप्सा/घृणा के भाव पैदा नहीं हुए। अन्त में, दोनों मुनियों ने अपना दिव्य स्वरूप प्रकट किया एवं नन्दीषण की वैयावृत्य तप की प्रशंसा करके अपने स्थान पर चले गए।
(४) स्वाध्याय : आत्मशोधन स्व-दोषों का संशोधन, आत्मस्वरूप का चिन्तन, मनन, आगमों का अध्ययन, अध्यापन आदि स्वाध्याय तप है। १६८ अपने कषाय भाव एवं मूल अकषाय स्वभाव को समझने के लिए स्वाध्याय परमालम्बन है। कषाय आत्मा में है, आत्मा का स्वभाव नहीं है। ____ अज्ञानी जीव कषाय को स्वाभाविक अवस्था मानता है। उसकी मान्यता होती है, कोई अपमान करे तो क्रोध आयेगा ही, अच्छी वस्तु को देखकर पाने की लालसा जागेगी ही, प्रशंसा पाने पर गर्व आयेगा ही, बुराई को छिपाने के भाव आयेंगे ही और ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। वस्तु-स्वरूप का ज्ञान न होने पर, कर्म-सिद्धान्त को न समझने के कारण, कषायों से होने वाली हानि ध्यान में न आने के कारण विपरीत धारणाएँ बन जाती हैं। स्वाध्याय से अपने अकषाय स्वभाव का ज्ञान होता है एवं चिन्तन, मनन, से दोषों का परिमार्जन होता है। अतः कषाय-क्षय के लिए साधक को स्वाध्याय में सदा यत्नशील रहने की प्रेरणा दी गई है। मासतुष मुनि'६९ को ज्ञानावरणीय कर्मोदय के कारण अध्ययन में गति न होने पर गुरुदेव ने मात्र एक सूत्र कंठस्थ करने हेतु दिया था- 'मा रूष मा तुष' ना राग करो, ना द्वेष करो। वह सूत्र भी विस्मरण हो गया और मासतुष का उच्चारण करने लगे। किन्तु बारह वर्ष का पुरुषार्थ सफल हआ और मुनि ने अकषाय स्वभाव को प्रकट किया।
(५) ध्यान : अकषाय स्वभाव में रमणता. __ जैनाचार्यों ने ध्यान को चित्त निरोध कहा है। १७० किसी एक विषय में एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता अशुभ विचार में भी हो सकती है एवं शुभ अथवा शुद्ध में भी। इसी अपेक्षा से ध्यान चार प्रकार का बताया गया है-११ (१) आर्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान; और (४) शुक्ल ध्यान।
__ आर्त एवं रौद्रध्यान दुर्व्यान, अप्रशस्त और अशुभ ध्यान हैं। इन दोनों ध्यान से कर्म-निर्जरा नहीं, अपितु कर्मबन्धन होते हैं। तीव्र कषाय उदय के परिणामस्वरूप ये दोनों ध्यान होते हैं। १६८. उत्तराध्ययनसूत्र/३०/३४ की टीका १७१. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र/३०/३५ १६९. कथा साहित्य
(ब) तत्वार्थ/९/२९ १७०, तत्त्वार्थसूत्र/अ. ९/सू. २७
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