Book Title: Kashay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust
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(६) व्युत्सर्ग : ममकार विजय
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आचारांग के विमोक्ष अध्ययन में आहार, कषाय आदि के व्युत्सर्ग का विवेचन है। इस तप के प्रसंग में संसार के हेतु राग-द्वेष, कषाय, बाह्य पदार्थों का त्याग एवं आत्मा को शुद्ध करने की प्रक्रिया का वर्णन है । व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग में काया का उत्सर्ग नहीं, अपितुं काया के ममत्व का उत्सर्ग होता है। १७८ कैसा भी उपसर्ग हो, अनुकूल या प्रतिकूल साधक समस्त परिस्थितियों का तटस्थ दृष्टा बनकर जागृति और समता को साधना का आधार स्तम्भ बनाकर स्वस्थ रहता है । वह मुमुक्षु जितने प्रमाण में स्वदेह, मन आदि पर्यायों के साथ तादात्म्य - अनुभव न करके उन्हें ज्ञान का ज्ञेय रूप जानता है, एक निर्लेप प्रेक्षक की तरह राग-द्वेष रहित होकर साक्षीभाव से देखता है, उतने अंशों में मुक्ति आस्वाद का अनुभव करता है। अहंकार एवं ममकार पर विजय प्राप्त कर साधक व्युत्सर्ग तप करता है।
जैन परम्परा में सुप्रसिद्ध प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का दृष्टान्त है - " कायोत्सर्ग मुद्रा में अकिंचन मुनि के रूप में राजर्षि खड़े थे; किन्तु पुत्रमोह के भाव से युद्ध क्षेत्र की विचार श्रेणी पर चढ़े और सातवीं नरक के दलिक एकत्रित कर लिये । जब मुनि अवस्था का भान आया, कषाय भावों के प्रति हेय - बुद्धि जागृत हुई, मोह-विजेता बनकर कर्मविजेता बने। पहले समय कायोत्सर्ग मुद्रा थी; पर कायोत्सर्ग तप नहीं था, दूसरे समय मुद्रा के साथ तप का संयोग था । मोक्ष : कषायमुक्ति
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मोह का क्षय मोक्ष है। मोक्ष के मुक्ति, निर्वाण, परिनिर्वाण आदि पर्यायवाची हैं। मुक्ति शब्द 'मुञ्च' धातु से बना है। दोषों से विमुक्ति ही वास्तविक विमुक्ति है । असावधान साधक राग-द्वेष रूपी दोष-मुक्ति के लिए संयमी जीवन अंगीकार करने के बाद भी यदि शरीर और इन्द्रियजनित सुखों की अभिलाषा से प्रेरित होकर शिष्य बनाता है, दीक्षित होने के बाद पश्चाताप करता है कि मैंने ऐसे कष्टों को क्यों अपनाया? कषाय एवं नोकषायादि विकार रूपी मोह - समुद्र में डूबता है, तो दुःख - मुक्ति के बदले नाना दुःखों को आमन्त्रित कर लेता है।
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१७७. (अ) आचारांगसूत्र / १/६
कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन
( ब ) उत्तराध्ययन/ ३०/३६ की टीका
१७८. चारित्रसार/५६/३ १७९. उत्तराध्ययनसूत्र /३० / ३६
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१८०. योगशास्त्र / १ / टीका १८१. आचारांगसूत्र/ १/५/६ १८२. उत्तराध्ययनसूत्र / ३२/१०४-१०५
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